कविताएँ

   
                                      
                                    
                     
A Message from the Sun
                                        
                                                - Sudhir Jinde
   
 Sitting under the silence
Away from the hustle and bustle
    With tousled thoughts
     I received a letter
 With shadow green
       And yellow dots
   The wind from the east
   Was in hurry to return
 like the night after day come
    The falling of the leaves
   Was the words of end
But the words on the hanging leaf
     Was not of mourn
    This is an arrival
   In the guise of burial
        I am both
       The message
        And a letter
     know who you are
  Both message and a letter
      I poured in you
       All my breath
   You colored the colorless
        All green
      But remember
   With happiness green
        Added the yellow
      Shades of melancholy
     Get rid of but swallow
    Smile and sigh
       The colors of life
    But another doorway
       Fusion of colors
        Forms the sun
  Unified emotions become one
      The middle path
     The awakened steps
    Reached the destiny
 Where ‘The Enlightened’ dwells.

                                                                                             
                                                 By
                                           Sudhir Jinde
                                     Ph.D. Research Scholar
                                 Dept. of Translation Technology
                                        Mob: 09890691568
                                  Email: stransa@gmail.com





 तोता

तेरे चोच में मैं कैसे डालूं दाना
गगन में उड़ने वाले ये तोते
तू तो कैद है पिंजरे में
पिंजरा है यह या
प्रजातंत्र का जेल
जिसने किया है साथ तेरे एक खेल

तू रोया था कितना
जब किसी ने तुझपे तीर चलाया
उसपे मरहम-पट्टी करवाई
और तुझे पिजड़े में कैद करा आया
लेकिन अब जख्म भर गया
उसने रख दिए तेरे इस पिंजरे में पकवान
क्या तू इसे खाएगा?
भूख मिटाएगा उस दरिंदे के हाथ से
मुझे मालूम है मेरे तोते
अब तेरी भूख प्यास मिट गई
चक्कर लगाता रह गया तू इस पिंजरे में
पंखों को हिला कर देख जरा
कितना भर गया है तेरा घाव
लेकिन तेरे दिल में अभी भी चोट है
गहरा घाव किया है उस तीर ने
कैसे निष्ठुर लोग हैं रे इस दुनिया के
आज़ादी से सांस भी नही लेने देते
क्या अभी भी तुझे भूख लगेगी
क्या तुझे प्यास लगेगी
नैनों से तेरे टपकते हैं ओले
कितने दिन से तू सोया नहीं है
अपनी परछाई से भी डर लगता है तुझे
देख तू घबराना मत
हर रात के बाद एक दिन उगता है
वो सूरज अब भी है इंतजार में
ले दो बूंद पी ले
ओह, अब भी नहीं पिएगा
कितने दिन इस झूठे पिंजरे में
कैदी की तरह भूखा प्यासा
बैठा रहेगा मेरे तोते
कोयल की कू की आवाज सुने
बीत गए होगे वर्षों
आकाश तो बादल ओढ़ के सो गया
मुझसे अब बर्दास्त नहीं होता
पहला ओ कौन होगा
जो तेरे पिंजरे का दरवाजा खोल के
तुझे आज़ाद कराएगा
मेरे तोते
ये दुनिया ऐसी ही गोल है
सुबह सूरज तो रात को चांद है
गणित में पाइथागोरस तो
रसायन में निलभोर है
इस नीले गगन को देख रहा है तू
यहां से धरती के ऐसे ही अजूबे दिखते हैं
किसी के हाथ में तिरंगा
तो किसी के पंजे में धनुषबाण है
अमीर-गरीब तौल रहा है
तो गरीब अपने झूठे नसीब को
मेरे तोते तू जितना हसा नहीं होगा
इस नील गगन में उतना रो रहा है इस पिंजरे में
देख मै लेकर आया हूं एक कांच का आइना
अपनी टूटी तस्वीर को इसमें देख
और दिखा इस दुनिया को उसकी असली तस्वीर
मुझसे और नहीं देखा जाता मेरे तोते
क्योंकि तेरे जैसा कभी मैं भी घायल हुआ था
और डाल दिया गया था ऐसे ही पिंजरे में
जहां से सदियों तक छूटा नहीं
समय ऐसा ही बीतता गया और एक दिन मैं आज़ाद हो गया
कितनो की कहानी हमारे जैसी है
कैसे करेगा अपने को आज़ाद
रुक मैं एक काम करता हूं
मैं ही तेरे पिंजरे का दरवाजा खोलकर आज़ाद करता हूं
लेकिन कोसता हूं अपने आपको कि
तेरे ऊपर चलाने वाले सारे तीर धारी को
हमेशा के लिए समाप्त नही कर सकता
अभी जाता हूं मेरे तोते
अलविदा मेरे तोते.



राजेश मून
अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ 
म.गा.अ.हि.वि., गोरख पांडे हास्टल
गांधी हिल, वर्धा
email- vmrajeshmoon@gmail.com
Mob.- +91-9049628308


सलाम है... 

सलाम है उन जवानों को
कारगिल और बॉर्डर के नौजवानों को
BSF, RPF और Commandos और भारत की तमाम टुकड़ियों को
कि जिनकी जान की कीमत पर मिली 
यह आज़ादी हमें 
सहेजकर रखें जिसे जतन से हम
जानें उसकी कीमत हम |
जब जगा ले देश का हर बंदा
अपने दिल में वह फौजी आत्मा
तब कोई आँख भी उठाके न देख पाएगा
हमारे इस विश्वगुरु प्यारे भारत को |
....नम हो गईं थीं आँखें, हो गए थे खड़े रौंगटे
जब पढ़ा कारगिल के शहीदों के पत्रों को
“भारत की सेना अद्भुत है ! वह कुछ भी कर सकती है !”
और जोश भर आया, बैठ गया विशवास पक्का
कि “हम भी तो अद्भुत हैं ! हम भी सब कुछ कर सकते हैं !”
....आज फिर वह घड़ी आई है नज़दीक जब
चीन दिखाके अपनी “डोंगफेंग” मिसाइल घुर्राके देख रहा हमको,
पाकिस्तान घुसपैठ कराके उठाता आवाजें हैं,
इज़राइल की बेईमानी देख उससे मुँह मोड़ लिया हमने
बनने को ताकतवर, सिंह-गर्जना करने |
न डरेंगे हम भीदिखाएँगे केवल करके
क्योंकि हम हैं भारत माँ की संतानें
क्योंकि सुनते आए हैं हम कि, “भारत माता शेरोंवाली है !
एक शेर भगत सिंह नाम कहाया, एक शेर ने राणा प्रताप नाम है पाया,
शेर एक  जीजामाता ने जाया, वीर शिवाजी नाम कमाया.... !”

वह ‘एक शेर’ है हम में भी
जो जाग गया तो किसी की खैर नहीं !
@Latika Chawda
Ph.D.Research Scholar  
latikachawda09@gmail.com 
+918624854728 | +917620613859




स्त्री को
किसीसे प्रेम नहीं करना चाहिए....
प्रेम
छीन लेता है
सोचने समझने की
तर्क करने की
विरोध करने की शक्ति....
और बना देता है उसे...
निरा गाय....!!!!!
बिना सींगो वाली...!
और पिता भाई प्रेमी या पति
जिनसे भी वह प्रेम करती है
दोहन करते रहते है उसकी भावनाओं का...
और उसे लगता है,
वे उससे प्रेम करते है....!

प्रेम स्त्री को अँधा बना देता है
वह देख नहीं पाती पिता भाई प्रेमी या पति द्वारा किया गया दुत्कार!
वह देख नहीं पाती
जब वे उसे
उसकी भावनाओं
उसकी इच्छाओं का बलिदान करने पर
विवश कर देते है,
अपनी झूठी शान के लिए...!
वह देख नहीं पाती
जब वे उसकी सुरक्षा के नाम पर
छीन लेते है उसकी स्वतंत्रता!!!!
और समय समय पर
पढ़ते है उसके कर्तव्यों की पोथी!!!
और वो भूल जाती है उसके अधिकार
और रटती रहती है,
पिता उवाच.....
पति उवाच.....
और यही सब देती है विरासत में
और एक स्त्री को!

जब पिता अपना बोझ किसी और पर डाल देता है...
वह बंध जाती है
किसी और खूँटे पर..
और कोल्हू के बैल की भांति
पूरा जोर लगाकर
गोल-गोल घुमती रहती है
उसके(?) संसार के चारों ओर
सुबह से रात तक..
और
रात से फिर सुबह तक!!!!!

स्त्री सबसे प्रेम करती है..
पर उसे कोई प्रेम नहीं करता..!
उसके न होने पर
सबकी दिनचर्या
हो जाती है अस्तव्यस्त
फिर क्या..?
उसे एक दिन के निजी अवकाशकी
सुविधा भी नहीं दी जाती

सबको उसकी आवश्यकता है....
यही उसके लिए संतोषप्रद हो जाता है
जिसे वह प्रेम समझती है
वह नहीं जानती
कि,
उनके इस आवश्यकताजनित प्रेमका
वास्तविक प्रेम से दूर दूर तक संबंध नहीं है
स्त्री को किसीसे प्रेम नहीं करना चाहिए....
क्योंकि
केवल और केवल उसके लिए
प्रेम की परिभाषा
गुलामीहै...!!!!!

                                                                              - मेघा दिलीप आचार्य





What Do You Say About That?
(A poem depicting the sequence of modern problems in life)



I am born in this world as a little sweet child
Destined to grow free and wild.
But my life is brutally cut and stunted,
The mafia of trafficking children has me hunted
I am trapped but not by choice, I am beaten flat.
Just look at my plight, what do you say about that?

I have dreams taking wings with my small little books
My mind is fascinated with the way the world looks,
But the people are rude, they are selfish and cruel
I am caught unaware of this ragging duel
I wanted to be a student, but now I’m like a rat
Just look at my plight, what do you say about that?

Let me pursue my dream as I grow strong and youthful
Education in my life would make me fruitful
But the gnawing ghost of poverty awakes me,
The loving of knowledge, the hard labour just breaks me
Because of this I’m ignorant, blind as a bat.
Just look at my plight, what do you say about that?

As I scramble in the sunlight for a job with determination
Sweating in the evening at the college examination
Even though the knowledge I gain is like honey
They throw me out because I’ve not enough money,
They suppress the poor people, look at the trick they’re at!
Just look at my plight, what do you say about that?

I’m working on a decent job along with a good pay,
Honesty and integrity help me all night and day,
But however hard I work it doesn’t satisfy
My hard hearted employers treat me as if I’m a fly
I’m starving and hungry while their wallets get fat,
Just look at my plight, what do you say about that?

Somehow I struggle and manage my family
My life has become mountaineering, no turning back to flee
As I pay my tax for the growth of my nation
I’m also supposed to fill the coffers of corruption
While the filth stained government prepares its budget,
Just look at my plight, what do you say about that?

I believe in God who always gives me strength
To face the hurdles and move forward any length,
But the greedy politicians dress in the garb of religion,
I’m used as a pawn for their selfish vision
While harmony is disturbed and wars are fought,
Just look at my plight, what do you say about that?

I slowly grow older and I’m filled with experience,
I have seen others joys while I’ve a pain stabbed conscience,
Old people like me are thrown out of our homes,
And all I have is just skin and bones,
I’m writing in pain, I’m living my fate,
Just look at my plight, what do you say about that?

And now it’s my last scene, the world I will leave,
But I’m worried about God, will my soul he receive?
I breathe my last, breath leaves with a long sigh
And I feel my spirit hovering on high
I was sad of you, right from the start,
Because you were just looking, get up and now act!

                                      

                                                    Deepti Ekka

                                                     M.Phil. Translation Technology



परवरिश
हमारी हर कहानी में तुम्हारा नाम आता है।
कोई पूंछे तो क्या कह दें कि तुमसे कैसा नाता है।।
ये पूनम चाँद का न जाने क्या जादू चलाता है।
कि पागल ही रही लहरे समुंदर कसमसाता है।।
जरा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को,
अगर सींचा नही जाए तो पौधा सूख जाता है।
हमारी हर कहानी में तुम्हारा नाम आता है।
कोई पूंछे तो क्या कह दें कि तुमसे कैसा नाता है।।
जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था।
वही बेटा बड़ा होकर सबक मुझको सिखाता है।।
वो वर्षों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को,
पता माँ बाप को भी वो कितनी जल्दी आता है।।
हमारी हर कहानी में तुम्हारा नाम आता है।
कोई पूंछे तो क्या कह दें कि तुमसे कैसा नाता है।।



                      कुलदीप कुमार पाण्डेय                                          
                                                               



Harbinger

                            Dr. Rajesh Moon

My over strung heart
Replete with curiosity
Proliferate by the nature
The whimper of air
Apparel the gloomy dream
Pilfer the lurid stream
Rely the train of harbinger
It reign in my delirious heart
Radiant the chimerical languor
Soporific intermittent night
The will I have right
Lethal outré of my mind
Explore the impede of optimistic
The sun, moon and the universe
Who can drag the noon?
And who ruled the moon?
Is the introvert errand of my heart

I have the answer

If you quite keep the mum
He is the luminant servant
The wrangle innate by precede
How he kept mystery
The mistake of god
Is the subject of his victory?
The story is too sad
He detent the fragrant of flower
The seeds never be there
Which will spread the joy ever?
Such thing never be explore
The hoodlum of universe he is
Is the criminal of humanity?
Deeds the task in favor
Which will be seek never
He captive all the enormous
And glitzy work he indoor
The groan of their voice
Play the hassle of baffle in my heart
The retreat of scenario
Ring the bell of parious
And gravid my emotion
Pretense the deep history
The water of the sea
Migrates the blemish activity
He placed there the key
Learned the notorious duty
The color he used the black
Result of it is rock
The pause of two second be knock
And open the castle of lock
The soil be used is radish
And the pebbles used Swedish
The threads are in green color
Woven in the sorrows of poor
The cap he used is red
Hasten the watery words
And haughty lurid shed
Cut the head with sword
But no one knows the cruel sight
In my hand had a thread of kite
The rumor of cataract
Is enlighted
The pathos of panthers
And the serene water
Blowing in my thrusty heart
The air has no sense
But death invisible broken leaves are spread
Among the lamp of many glass
 Right is the view
No one knew
If so, never rescued
But there are few
Have the love drops of dew
Wove the agony of fostered scarcity
Is the justice?
To trap the mistake of almighty
And dawdle the wangle
Perhaps he is ignorant
About the thing
Created by god
Have a specific importance
Of any mistook
Victim of lethal death
Nature can change the rule
On his own accord
Nor can permit such deliverance
Any one reinforce it
Is the award of nemesis?
It is nothing but the dream
Created by the nature
For the explorence of secret
Which further deeply rooted?
I did not know
Where the man is happy or sad
For both I have reason
But my mind is imprisoned
The eyes with blight dreams
Are remain open up to
The rejoices of mirth
Then never shed the tears
But in the absent of me
Never fear
I will demolish the gloomy world
And spread the message
Of love among you
As the harbinger of nature.








सिगरेट 

                                   ललिता गुप्ता (गुंजन)
  ये तेज सर्दी
चाय की एक कप
मुँह से निकलते
धुएं नुमा बाष्प
तो क्या बुरा किया ?
जो चाय के साथ
एक सिगरेट की कश लगा ली
उसने दूर से देखा
देखते ही कह दिया |
फिर तोड़ दिया न तुमने वादा ?
क्यों प्यार है तुम्हें इससे;
                                हम सब से ज्यादा ?
और मुँह फेर के चली गयी
तेजी से|
प्यार?
प्यार तो उसे भी नहीं था मुझसे
अगर वो साथ ही होती
तो ये क्लासिक के दसों पैकेट
मैं ख़त्म नहीं करता
हाँ|
यही सच है|
कैसे कहूँ उससे
कि ये तुम्हारी ही देन है|
ये मुझसे तुम्हारी कमी बांटती है|
तो क्यों पियूं मैं
कम से कम
ये मेरे मुँह पर दरवाजा मार के
मुझे छोड़ के तो नहीं जाती
अच्छा!
लो, छोड़ दी मैंने सिगरेट आज से
अब?
क्या? तुम मेरे साथ रहोगी हमेशा ?
शायद नहीं |







  माँ

                        कुलदीप कुमार पाण्डेय

मेरी माँ तू कहाँ दे मुझे ये बता
सबकी माँ है मगर मुझको है न पता
बिन तेरे प्यार के रोज मरता हूँ मै
आंसुओं के कड़े घूंट भरता हूँ मै
देखता हूँ तुझे तू है जिंदा कहीं
सोंचता हूँ तुझे तो लगे तू यहीं
बिन मेरी माँ के अब मै न रह पाऊँगा
जख्म इस ज़िंदगी का न सह पाऊँगा
मेरी माँ की फोटो देख कर लगे
मेरी माँ कब जगे कब जगे कब जगे
मेरी माँ अब कहीं मुझको दिखती नही
दोस्तो क्यों माँ बाज़ारों में बिकती नही



                                                                      
                      सौगात
कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ........
या दिल का प्यार लिखूँ........
कुछ अपनों के जज़्बात लिखूँ या सपनों की सौगात लिखूँ....
मैं खिलता सूरज आज लिखूँ या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ .....
वो डूबते सूरज को देखूँ या उगते फूल की सान्स लिखूँ ......
वो पल मे बीते साल लिखूँ या सदियों लंबी रात लिखूँ ....
मैं तुमको अपने पास लिखूँ या या दूरी का एहसास लिखूँ ......
मैं अंधे के दिन मे झांकू या आंखों की रात लिखूँ ......
मिरा की पायल को सुन लू या गौतम की मुस्कान लिखूँ ......
बचपन मे बच्चो से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ .....
सागर सा गहरा हो जाऊ या अंबर का विस्तार लिखूँ ......
वो पहली पहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ.....
सावन की बारिश में भीगूँ या आँखों की बरसात लिखूँ .....
गीता का अर्जुन हो जाऊ या लंका रावण राम लिखूँ ......
मैं हिन्दू मुस्लिम हो जाऊ या बेबस इंसान लिखूँ ......
मैं एक ही मजहब को जी लूँ या मजहब की आँखें चार लिखूँ .....
कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ ....
या दिल का सारा प्यार लिखूँ .......


                       विशेष कुमार श्रीवास्तव
                          पी-एच॰ डी॰अनुवाद प्रौद्योगिकी



                 बुढ़ापा

बसर को जब भी बचपन की पुरानी याद आती है
पिता का प्यार माँ की मेहरबानी याद आती है
साथ हमजोलियों की टोलियों में नाचतीं गलियाँ
उम्र के पहले हिस्से की कहानी याद आती है
कि मुद्दे फूटते ही फूटआई सब तमन्नायें
फिक्र का बोझ, जिम्मेदारियाँ, टेढ़ी समस्याएँ
वो बेफिक्री के जीवन की सुहानी याद आती है
बसर को जब भी बचपन की पुरानी याद आती है
पिता का प्यार माँ की मेहरबानी याद आती है
जवां पक्षी को पकड़ा है बुढ़ापे के शिकारी ने
कि पिंजरे में ही पिंजर कर दिया दुख और बीमारी ने
कि जीवन खत्म करके जब गया यमराज के द्वार
अंत में जाते समय बंदे को नानी याद आती है
बसर को जब भी बचपन की पुरानी याद आती है
पिता का प्यार माँ की मेहरबानी याद आती है
                                 
                                                                                   कुलदीप कुमार पाण्डेय

                                                                            एम.फिल. अनुवाद प्रोद्योगिकी 




    हमारा MGAHV..!!!
              @लतिका चावड़ा
पी-एच.डी. शोधार्थी, अनुवाद प्रौद्योगिकी विभाग
                                                                                      latikachawda09@gmail.com                                                                             07620613859 | 08624854728
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MGAHV से कर ली दोस्ती, तो हिंदी से नाता हमारा जुड़ गया!
कर ली अंग्रेज़ी से कुट्टी, मेरा शब्द प्रति शब्द हिंदी हो गया!
Department को कर दिया विभाग हमने,
Section को अनुभाग कर दिया!
विश्वविख्यात हस्तियों के दर्शन किये हमने,
उनकी दुर्लभ रचनाओं से परिचय हो गया!
लेखकों की प्राचीन पांडुलिपियों का संग्रह है यहाँ,
साहित्य-जगत की किताबों का ‘राहुल सांकृत्यायन’ में भरमार है!
ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ ---“गांधी हिल्स” हैं यहाँ,
कबीर हिल्स उसके पास है!
पुराने बाजारों की याद दिलाती, यहाँ “नज़ीर हाट” है!
Mini Delhi बस्ता है यहाँ, इसका अपना अलग भाषाई-संसार है!
हिंदी को विश्वव्यापक बनाना, उसे एक नई पहचान देना,
इसका केवल एक सार है!
हिंदी समय” एक अद्भुत संग्रह यहाँ,
hindivishwa.org” इसका अपना अंतरजाल है!
भाषा और अनुवाद से भारत और जहाँ को जोड़ता, यहाँ हमारा “अनुवाद प्रौद्यगिकी विभाग” है!
कुछ बातों को छोड़ दें तो, विश्वपटल पर इसकी अपनी पहचान है!!!!

“इस रचना में आप भी कुछ इज़ाफ़ा करें, इसका हमें इंतज़ार है!!” :)



    कटाक्ष

हा , हा , हा.... करते तुम आए कहाँ से...
जिंदगी पर मेरे हँसते बादल छाए कहाँ से...
बोलती है प्यारी बहना की चिंता ...
झुकते अधरों संग नैना झुके आए.. कहाँ से...
बोलती है माँ की ममता आँचल
आँखों की मिचकन छिपाए आए... कहाँ से...
पापा की  हसी संग भैया की डपट...
रोटी की भूख और पेट की चटक
प्रियतमा का प्रेम संग मित्र की कसक
सबकी हलचल भी लाए कहाँ से..
हा.. हा.. हा.... करते तुम आए कहा से

मेरे जीवन पर कटाक्ष यूँ लाए कहाँ से..
- राजकुमार 
एम.फिल. शोधार्थी


हमदम 

आँखों की नमी बार-बार सताती है 
जब याद मुझे तेरी आती है ...
एक बार एक हँसी का आँचल तुम्हारा... 
भुला देता है हर दर्द हमारा ...
कहते हैं तुम हो क्या ...
नहीं जानता ये सारा संसार  हमारा
बस हो तुम ...हो तुम कहीं ....
    जिसमें छुपी है 
मेरी हँसी मेरी चाह ..
वो तुम्हारी मुस्कुराहट ...तुमारी आह 
 ...प्रेम के वो ढाई आखर ...
साथ ही तुम्हारे ओठों की मुस्कान...
देख कर भूल जाता हूँ....
 सारे गम.... सारे घाव 
बस एक आँचल सिकोड़े  आती है 
 तुम्हारे मन की गरिमा ...
कहती है उठ जाग ....ऐ मुसाफिर
हमदम तक है... तुझे जाना ....
अपने प्यार की खातिर है जग सारा पाना 
उठ चल उठ .....
ना  गिर.. ना  थक 
बस पा ले अपनी मंजिल ...
 और देख उठा के नज़र ..
गा रहा है कोई ...
तेरे प्यार का अफसाना ..
तेरा हमदम  ..तेरा प्यार 
तेरा हमदम ..तेरा प्यार 
तेरा हमदम ..तेरा प्यार !  

- राजकुमार 
एम.फिल. शोधार्थी 



कुछ पल अनहोने - से

कुछ पल अनहोने - से
कुछ पल अनहोने-से क्यों बन जाते हैं ….
ना जाने कौन सिहरा जाता है... मुझे
कभी न कभी कोई आवाज़
तो कभी दे जाते हैं....
 कोई आगाज़ नया-सा
मेरी आँखों का दर्द....
साथ में बहती मेरी ममता भरी माँ की आवाज़..
क्या करते हो कुछ पल में तुम यहाँ ...
कुछ चाह थी आगाज़ था  ..
उत्साह था जब... आया था
में यहाँ पर ….
पर अब क्या है ...
ना जाने क्यों है, अब यहाँ सब ..
रोती  रुलाई.. हंसती हसाई
आँखों का पानी और कुछ पल की जुदाई
न भरा रुदन मेरे  मन का.....
 हाय किसने यह आह भरवाई...
 जिसने मजबूर किया...
मुझे लिखने पर कुछ पल अनहोने से....यहाँ   

- राजकुमार 
एम.फिल. शोधार्थी 





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