वैश्विककरण के
दौर में अनुवाद की भूमिका
अनुवाद के संदर्भ में प्रयुक्ति और प्रयोग क्षेत्र
अनुपमा पाण्डेय
शोध छात्र- अनुवाद प्रद्योगिकी विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
(महाराष्ट्र)
वैश्विककरण के समय में आज दुनिया का कोई भी व्यक्ति इसके परिणामों से अछुता
नहीं रहा है. वैश्विककरण के परिणामस्वरूप दुनिया की तमाम भाषाओं की भांति हिंदी के
स्वरूप, क्षेत्र एवं प्रकृति में बदलाव आया है और इसके प्रसार में वृद्धि हुई. हिंदी
को वैश्विक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में अनुवाद का महत्वपूर्ण योगदान रहा
है. वर्त्तमान समय में अनुवाद का कार्य बहुआयामी स्तर पर हो रहा है. अनुवाद मनुष्य
के जीवन से जुडी हुई सहज और स्वभाविक प्रक्रिया है. इसके माध्यम से एक भाषा में
व्यक्त सन्देश को दूसरी भाषा में संप्रेषित किया जाता है. आधुनिक युग अनुवाद का युग है. आज
विभिन्न राष्ट्रों के बिच सांस्कृतिक साझेदारी की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सूचना
प्रद्योगिकी और ज्ञान विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए भी अनुवाद बेहद जरुरी है.
अनुवाद का अध्ययन अध्यापन आधुनिक समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गई है. साहित्य
समाज का दर्पण है तो अनुवाद सांस्कृतिक उत्कृष्टता का परिचायक. विश्व साहित्य से
अवगत होने के लिए और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए अनुवाद प्राचीन काल से होता आ
रहा है. मनुष्य अपने ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के लिए भी इसका प्रयोग कर रहा है.
अनुवाद प्राचीन और महत्वपूर्ण भाषाई प्रक्रिया है. अनुवाद एक चुनौति भरा कार्य है
क्योंकि प्रत्येक भाषा की प्रकृति व परिवेश भिन्न होता है. उसका संरचनात्मक स्तर
अपने स्वरूप व आयामों से दूसरी भाषा में भिन्न अर्थ स्तर का होता है. प्रत्येक
भाषा की अपनी सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति होती है और वह उनसे प्रभावित होती है.
आज विश्व ‘ग्लोबल विलेज’ में बदल चूका है. वैश्विककरण
और बहुभाषिकता, विभिन्न देशों की संस्कृतियों, भाषाओं एवं भौगोलिक सीमाओं में
परस्पर आदान-प्रदान के कारण उत्पन्न हुई है. काफी हद तक यह स्थिति विभिन्न देशों
के साहित्य के परस्पर अनुवाद के कारण ही संभव हो पाई है. इसलिए आज के इस साइबर युग
में सृजनात्मक ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ साहित्य के अनुवाद का भी अत्यधिक महत्व
है. इस आधार पर अगर वर्त्तमान युग को अनुवाद का युग कहे तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं
होगी. यह हम सहज रूप से ही समझ सकते हैं कि यदि आज अगर ‘अनुवाद की कला’ न होती तो
विश्व साहित्य और विश्व-संस्कृति जैसी सभी अवधारनाएं मात्र काल्पनिक ही रह जाती.
शायद ही जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसमें अनुवाद की उपयोगिता प्रमाणित न की जा
सके.
वैश्विककरण की प्रक्रिया में
अनुवाद-
विश्व संस्कृति के विकास में
अनुवाद का योगदान -
विश्व संस्कृति के विकास में अनुवाद का योगदान अत्यंत
ही महत्वपूर्ण रहा है. धर्म एवं दर्शन, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी,
वाणिज्य एवं व्यवसाय, राजनीति एवं कूटनीति जैसे संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का
अनुवाद से अभिन्न संबंध है. “प्राचीन काल की संस्कृतियों के विकास में अनुवाद की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बैबिलोन की संस्कृति बहुभाषी लोगों की संस्कृति थी और
उनके प्रशासनिक कार्य-कलापों तक में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. रोम के
लोगों ने संपूर्ण यवन की संस्कृति को अनुवाद के माध्यम से अपनाया था. अरबों ने तो
भारत के गणितशास्त्र, खगोलविज्ञान एवं आयुर्वेद के ग्रंथों का अनुवाद करके विश्व
संस्कृति के विकास की भूमिका तैयार की थी. अब्बासियों के ज़माने में बग़दाद अनुवाद
का ऐसा केंद्र था जहां के अनुवादकों ने एक ओर भारतीय ग्रंथों का और दूसरी ओर ग्रीक
भाषा के ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में किया.”[1]
यूरोप के नवजागरण में ग्रीक एवं लैटिन के ग्रंथों के
अनुवाद की बलवती भूमिका रही है. आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नवोत्थान में भी
पश्चिमी साहित्य के अनुवादों का बड़ा हाथ रहा है. आज संप्रेषण के साधनों के
आविष्कारों के कारण विश्व इतना छोटा बन गया है कि एक प्रदेश के लोग दूसरे प्रदेश
के जीवन और उनकी गतिविधिओं के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं. विश्व मैत्री और
सहयोग के इस दौर में किसी भी प्रदेश की जनता को जानने समझने के लिए उस प्रदेश के
साहित्य को समझना अत्यंत अनिवार्य हो गया है. भारत जैसे विकासशील बहुभाषा-भाषी
राष्ट्र में प्रशासन, कानून, शिक्षा, व्यवसाय, विज्ञान एवं कृषि के क्षेत्र में
जनभाषाओं की प्रतिष्ठा का नया युग आ रहा है. न केवल भावनात्मक एकता को बनाये रखने
के लिए बल्कि ज्ञान विज्ञान के नए स्पंदन को सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए भी
आज भारतियों के लिए अनुवाद अनिवार्य हो गया है.
बहुभाषिकता के अर्थ में –
बहुभाषी शब्द का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो दो या
दो से अधिक भाषाओं का प्रयोग करता हो. विश्व में बहुभाषी लोगों की संख्या एक
भाषियों की तुलना में बहुत अधिक है. विद्वानों का मत है कि द्विभाषिकता किसी भी
व्यक्ति के ज्ञान एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए बहुत उपयोगी है.
सामाजिक संस्कृति के विकास में
अनुवाद -
संस्कृति अपने बृहत्तर अर्थ में पूरी तरह मानव सभ्यता
की उपलब्धियों का साझा कोष है. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि मनुष्य
की श्रेष्ठ साधनाओं का ही दूसरा नाम संस्कृति है. जिस तरह सागर अनंत नदियों की
जलराशि को समाहित कर विशालता अर्जित करता है, उसी तरह भारतीय संस्कृति ने भी कई
चिंतनधाराओं, कई विचारशैलिओं और न जाने कितनी व्यवहारगत असमानताओं को अपने भीतर
पचा कर अनूठी समंवयात्मकता का परिचय दिया है. भारतीय जीवन में व्याप्त अनेकता में
विद्यमान सांस्कृतिक समीकरण ही इस सामासिक संस्कृति की मूलभूत विशिष्टता है. भारत
की इस सामासिक संस्कृति को बनाये रखने में अनुवाद ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.
अनुवाद के बिना हम कैसे जान पाते की मौजूदा भारतीय साहित्य और चिंतन किन दिशाओं
में अग्रसर है.
उभरते बाजार में अनुवाद की भूमिका -
आर्थिक भूमंडलीकरण का आगमन हर जगह व्यवसायों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में
प्रतिस्पर्धा के लिए बाध्य कर रहा है. क़ानूनी,
व्यापारिक, बीमा और वित्तीय मामलों से संबंधित सभी कंपनी दस्तावेजों के
अनुवाद में अधिकतम कार्य किये जा रहे हैं. इसके
लिए हर विषय से संबंधित विषय के अनुवादक रखे जाते हैं, जिनका
बाजार में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. आज बाजार में विज्ञापनों के अनुवाद में महत्वपूर्ण कार्य किये जा
रहे हैं.
यदि हम बाजार में कोई उत्पाद बेचना चाह रहे हैं तो हमें सबसे
पहले उस देश-प्रदेश
की भाषा, संस्कृति और वहां के लोगों के मनोभावों को जानना पड़ेगा और
फिर उस परिवेश के अनुसार उस उत्पाद का अनुवाद लक्ष्य भाषा में करना पड़ेगा. इसलिए सबसे पहले अनुवादक को यह ध्यान में रखना होगा की वह जो
अनुवाद कार्य कर रहा है क्या वह लक्ष्य भाषा-भाषी
के संस्कृति के अनुरूप है या नहीं. क्योंकि विज्ञापनों का बाजार में महत्वपूर्ण स्थान है और
इनके ऊपर ही पूरे बाजार की पृष्ठभ बाजार की पृष्ठभूमि टिकी होती है.
वैश्विककरण के दौर में अनुवाद के क्षेत्र
में कंप्यूटर का प्रवेश-
बाजारीकरण के इस दौर में आज व्यक्ति का हर क्रियाकलाप
बाजार से जुड़ गया है और वह बाजारीकरण के इस दौड़ में सबसे आगे निकलना चाह रहा है
जिसके लिए वह कम समय और तीव्रता से अपने हर कार्य को करना चाह रहा है. आज के इस
समय में कंप्यूटर वह मशीन है जिससे हमारे सभी कार्य आसानी से व कम समय में हो जाते
है. अनुवाद भी इससे अछुता नहीं रहा है. अनुवाद में कंप्यूटर के प्रयोग से तात्पर्य
मशीनी अनुवाद से है जिसमें हम कंप्यूटर के माध्यम से अनुवाद कार्य करते है.
वैश्विककरण द्वारा राष्ट्रिय
एकात्मकता में अनुवाद का योगदान-
वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति, के इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व श्रृष्टि
का निर्माण होने लगा है. मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर
विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे है. ऐसी स्थिति में यह
स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को
जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों. इसके परिणामस्वरुप चिकित्सा, तकनीकी वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने
के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतर्राष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन
का कोहरा छँटने लगा है. भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण
बनने लगा है. एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों
को किसी दूसरे देश, भाषा अथवा संस्कृति तक पहुँचने के लिए
अनुवाद का ही सहारा लेते हैं और एक नयी सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी.
यदि प्राचीन साहित्य के अनुवादन किये गए
होते तो आज वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि विदेशों में तो क्या शायद स्वयं अपने देश में भी इतने चिरंजीवी न
होते. अनुवाद न होता तो अरस्तु, प्लेटो, सुकरात, दांते, वर्जिल, मोपांसा, टॉलस्टॉय, पूश्किन, गोर्की, उमर ख़्याम, शेक्सपियर, शैली, बायरन, कीट्स, आदि महान लेखकों की विचार संपदा से सारा विश्व कैसे लाभान्वित होता? रवीन्द्रनाथ, बंकिम और शरत्चन्द्र केवल बंगाल तक ही सीमित रह जाते. तुलसी तथा प्रसाद के
काव्य का रसास्वादन अन्य भाषाओं के पाठक कैसे कर पाते? चीन, जर्मनी, रूस, कोरिया, जापान आदि के लोक-कथाओं के साथ भारतीय लोक कथाएँ भी सामने आ नहीं पाती. पंचतंत्र, जातक कथाएँ, एवं हितोपदेश आदि की कथाएँ, जो बच्चों को रोचक ढंग से नैतिक आचरण की
शिक्षा देती हैं, वे विनष्ट हो गई होतीं.
राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय एकता
की अनिवार्य कड़ी के रूप में भाषा की भूमिका को भला कैसे नकारा जा सकता है. भारत
जैसे बहुभाषी देश में भाषा की यह भूमिका कुछ और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि अनेकता
की बीच एकता के मन्त्रों का उच्चारण भाषा के स्तर पर करने का संकल्प अनुवाद के
सहयोग से ही पूरा किया जा सकता है. भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक
दृष्टियों से हमारा देश बहुकोणीय है. एक साथ कई धर्मों, कई सम्प्रदायों, कई
जातियों, कई भाषाओं और कई आचार-व्यवहारों से बना है भारत का मानचित्र. भारत के
राष्ट्रीय पहचान के विविध तत्व कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस देश के विभिन्न
भाषाभाषी लोगों के बीच बिखरे हुए हैं. मध्ययुग के भक्ति-आंदोलन से लेकर
उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के स्वाधीनता संग्राम तक पारस्परिक संपर्क और संप्रेषण
में अनुवाद ने अपनी विशिष्ट भूमिका का संवहन किया है. वास्तव में अनुवाद वह सशक्त
माध्यम है, जिसके द्वारा राष्ट्र की एकसूत्रता को सही दिशा मिलती है. अनुवाद की
सुविधा के अभाव में हम अपने विशाल बहुभाषी राष्ट्र में ही अपरचित जैसे रह जाते.
अनुवाद ने संपूर्ण राष्ट्र को एकता के बंधन में बांध के रखा है और राष्ट्रीयता के
सूत्रों को बिखरने से रोका है.
संदर्भ सूची-
१-
जी. गोपीनाथन : अनुवाद सिद्धांत और प्रयोग, लोकभारती
प्रकशन.
२-
सं. तिवारी, बालेन्दु शेखर : अनुवाद विज्ञान, प्रकाशन
संस्थान, नयी दिल्ली.
३-
सं. बिमलेश कांति वर्मा, मालती : अनुवाद और तत्काल
भाषांतरण, प्रकाशन विभाग.
४-
कुमार, सुरेश : अनुवाद सिद्धांत की रुपरेखा, वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली.
५-
सं. अली, सय्यद शौकत, डॉ. मिर्झा हाशम बेग : पारिभाषिक
शब्दावली और अनुवाद : अंतः संबंध, हमदर्द पब्लिक लायब्रेरी बीड.
अनुवाद के संदर्भ में प्रयुक्ति और प्रयोग क्षेत्र
शिल्पा
पी-एच. डी हिंदी(अनुवाद
प्रौद्योगिकी)
म.गां. अं. हिंदी
विश्वविद्यालय, वर्धा
guptapuja971@gmail.com
मो.नं- 8149698102
धनंजय विलास झालटे
पी-एच. डी शोधार्थी
सोलापुर विश्वविद्यालय, सोलापुर
मो.नं-
9096800758
भारत एक बहुभाषिक समाज
है। इसके ऐतिहासिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आयाम काफी
विस्तृत और गहन है। संसार का समग्र ज्ञान पाने के लिए जीवन सीमित है और यह
समग्र ज्ञान विज्ञान किसी एक भाषा में समाहित नहीं है। ऐसी स्थिति में अनुवाद का अपना
विशेष महत्व है। अनुवाद समस्त विश्व की व्यापार, संस्कृति, अनुसंधान, दर्शन, राजनीति आदि
के अनंत प्रसंगों में एकीकृत करने का कार्य करता है। इसलिए यह किसी समाज या राष्ट
विशेष का न होकर पूरे विश्व का होता है और पूरा विश्व में इसका अपना विचरण-स्थल
होता है। अनुवाद को हम इस प्रकार समझ सकते हैं –‘अनुवाद’ का
व्युत्पतिमूलक अर्थ है- पुन: कथन-एक बार कही हुई बात को दोबारा कहना। इसमें ‘अर्थ की
पुनरावृत्ति’ होती है, शब्द की नहीं। ‘ट्रांसलेशन’ शब्द का
व्युत्पत्ती मूलक अर्थ है ’पारवहन’ एक स्थान-बिन्दु से दूसरे स्थान बिन्दु पर ले जाना इसमें भी
ले जाई जाने वाली चीज अर्थ होती है ,शब्द नहीं। दूसरे शब्दों
में हम कह सकते हैं कि अनुवाद स्रोत भाषा में कहे गए कथ्य को लक्ष्य भाषा में
निकटतम रूप में रखना। इस प्रकार अनुवाद का तात्पर्य किसी एक भाषा कि सामग्री को
दूसरे भाषा में रूपांतरण ही अनुवाद होता है।
सैमुएल जॉनसन ने कहा है कि “अनुवाद
मूलभाषा की सामग्री के भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना है|”
(“To translate
is to change into another language retaining the sense.”) अनुवाद की प्रक्रिया
में जो दो भाषाएँ उनमें प्रथम भाषा वही हैं जिसकी सामग्री का अनुवाद किया जाए इसे
मूलभाषा व स्रोत भाषा कहते हैं। अंग्रेजी में सोर्स लैंगवेज कहते हैं। द्वितीय भाषा
वही है जिसमें सामग्री अनूदित की जाती है ,इसे लक्ष्य
भाषा कहते हैं। अंग्रेजी में इसे टारगेट लैंगवेज कहते हैं।
‘प्रयुक्ति’ भाषाविज्ञान
के अंतर्गत रजिस्टर के पर्याय के रूप में हिंदी में विशिष्ट अर्थ में प्रचलित है।
भाषाविद हैलिडे ने रजिस्टर शब्द को व्याखा इस तरह प्रस्तुत की है – “भाषा समुदाय
में विभिन्न वर्ग विभिन्न बोलियों बोलते हैं। एक अन्य दिशा में भी भाषा के विविध
रूपों की चर्चा की जाती है – प्रयोग भेद की दिशा में भाषा में प्रयोजन के अनुसार
भेद होते हैं। प्रयोजन के आधार पर भाषा के स्वरूप भेद को जो नाम दिया जाता है, उसे रजिस्टर
कहते हैं।” इस प्रकार प्रयुक्ति भाषा के प्रयोग का वह प्रकार है जो किसी
वक्ता-विशेष या लेखक-विशेष द्वारा किसी विशिष्ट संदर्भ में प्रयुक्त किया जाता है।
अर्थात भाषा के प्रयोग पर आधारित प्रयोग को ‘प्रयुक्ति’ कहते हैं।
प्रयोजनमूलक हिंदी का आज
देश में बहुत बड़े क्षेत्र में प्रयोग हो रहा है। आज इसने एक ओर कम्प्युटर, इलेक्ट्रॉनिक
टेलीप्रिंटर, टेलेकस, तार, दूरदर्शन, रेडियों, डाक, अख़बार, फिल्म और विज्ञापन आदि जन-संचार के सभी माध्यमों को अपने
घेरे में ले लिया है तो दूसरी ओर शेयर बाजार, रेल, हवाई जहाज, बीमा-उधोग, बैंक आदि औद्योगिक
उपक्रमों रक्षा, सेना, इंजीनियरिंग आदि प्रौद्योगिकी संस्थानों, तकनीकी और
वैज्ञानिकों क्षेत्रों, आयुर्विज्ञान, कृषि विभिन्न संस्थानों में हिंदी के माध्यम
से प्रशिक्षण दिलाने, विश्वविद्यालयों, सरकारी-अर्द्ध सरकारी कार्यालयों
में-चिट्ठी-पत्री, लेटर पैड, स्टॉक-रजिस्टर, लिफाफे, मुहरे, नामपट्ट, स्टेशनरी के साथ-साथ-कार्यालय
ज्ञापन, परिपत्र, आदेश, राजपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, प्रेस-विज्ञप्ति, निविदा, अपील, नीलाम आदि में
यह बहुत आसानी से प्रयुक्त की जा रही है।
प्रत्येक व्यक्ति जब
समाज में विभिन्न भूमिकाएँ निभाता है – कभी वह परिवार के मुखिया के रूप में
व्यवहार करता है तो कभी वह परिवार के मुखिया के रूप
में व्यवहार करता है तो कभी व्यवसायिक के रूप में, कभी
खिलाड़ी के रूप में, कभी वैज्ञानिक के रूप में या प्रोफेसर के
रूप में, कभी वह बच्चों के पिता के रूप में, तो कभी वह पति के
रूप में भाषा का व्यवहार करता है और इस प्रकार वह निश्चित रूप से विभिन्न
भाषा-रूपों का निर्वाह करता है। इसका अर्थ हुआ की बदली हुई सामाजिक भूमिका के
संदर्भ में व्यक्ति की भाषा भी व्यक्ति, संदर्भ और
भूमिका-सापेक्ष प्रयुक्ति की संज्ञा दी है। स्थितियों के संदर्भ में भाषा के जो
भेद उभर कर आते हैं उन्हें भी ‘प्रयुक्ति’ कहा गया है। इस प्रकार के भाषा रूप का
प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन को भाषा नही कहते हैं।
इसके तीन आयाम है
–
1. वार्ता क्षेत्र (Field of Discourse),
2. वार्ता प्रकार (Mode of Discourse),
3. वार्ता शैली (Style of Discourse)
- वार्ता क्षेत्र – भाषा रूपों में विषय के तकनीकी या अतकनीकी होने
के कारण जो प्रयोगगत भेद दिखाई देते हैं, उन्ही के आधार पर प्रयुक्तियों का निर्धारण किया जाता है। इसलिए इसे विषय क्षेत्र कहा
जाता है। उदा- कार्यालय, पत्रकारिता, इंजीनियरी, वाणिज्य, विज्ञान
आदि को भाषा में जो भेद दिखाई देता है वह विषय पर ही आधारित है। विज्ञान, इंजीनियरी, चिकित्साशास्त्र, विधि आदि के भाषा-रूप तकनीकी प्रयुक्ति में आते हैं और कार्यालय, वाणिज्य, पत्रकारिता आदि के भाषा रूप
अर्द्ध-तकनीकी प्रयुक्ति के अंतर्गत आते हैं।
- इसमें यह देखा जाता है कि भाषा का प्रयोग मौखिक भाषा
में प्राय:वाक्य रचना पूर्ण नहीं रहती या उसका सुव्यवस्थित रूप नहीं होता। कभी-कभी
ध्वनियों तथा शब्दों का भी लोप हो जाता है। उच्चारण भेद, ध्वनियों के आरोहण-अवरोह तथा वक्ता के मुख और अन्य अंगों
द्वारा प्रदर्शित हाव-भाव से वाक्य का पूरा अर्थ समझा जाता है, जबकि लिखित भाषा में पूर्ण शब्दों को सही वर्तनी के साथ पूर्ण वाक्य
लिखे जाते हैं। तकनीकी और कार्यालयी भाषा लिखित होती है। इसके साथ आकाशवाणी
या दूरदर्शन में प्रसारित सामाचारों कि भाषा लिखित भाषा का पठित या मौखित रूप
होता है।
- इसमें वक्ता-श्रोता या लेखक-पाठक का संबंध अधिक
महत्वपूर्ण है। अधिकारी और कर्मचारी के बीच या कर्मचारी-चपरासी के बीच या
यजमान और अतिथि के बीच सामाजिक संबंध के साथ भाषा-शैली बदलती है।
हिंदी की
प्रयुक्तियाँ – 1. भाषा शैली का संदर्भ,
2. भाषा
प्रयुक्ति का संदर्भ
भाषा शैली की दृष्टि से हिंदी की संस्कृतनिष्ठ या साहित्यिक हिंदी,अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी अर्थात हिन्दुस्तानी जैसे भाषा
शैलियाँ दिखाई पड़ती है। हिंदी में एक ही विषय क्षेत्र में हम तीनों का प्रयोग का
प्रयोग कर सकते हैं। उदा. हम उपन्यास लिखना चाहे तो इन तीनों शैलियों में से किसी एक का प्रयोग
करने के लिए स्वतंत्र हैं।
इसका स्वरूप
संस्कृत-मिश्रित, अरबी-फारसी मिश्रित बंधनों से युक्त
होता है और इसका संबंध प्रयोग क्षेत्र से बनता है। इसमें एक दो या अधिक शैलियों का
मिला-जुला प्रयोग किया जाता है। कार्यकारी (प्रशासन)क्षेत्र में आदेश, निदेश, अनुदेश जैसे पारिभाषिक शब्द अपनी-अपनी सैद्धांतिक संकल्पनाएँ लिए हुए
कार्यकारी प्रयुक्ति में प्रयुक्त किए जाते हैं जबकि सामान्य भाषा में इनका प्रयोग
एक ही अर्थ में हो सकता है। कार्यालय की प्रयुक्ति में एक शब्द या अधूरे वाक्य
पूरे वाक्य का अर्थ देते हैं जैसे तत्काल, गोपनीय, आवश्यक कार्रवाई के लिए । ‘आपको चेतावनी दी जाती है’ यह सूचित किया जाता है’ ‘यह
मामला वित्त विभाग को भेजा जाए’ जैसे वाक्य संरचनाएँ भी
प्रशासनिक प्रयुक्ति की विशेषताएँ हैं।
व्यवसाय के
क्षेत्र में मुद्रा, पूंजी, उत्पादन,
सहकारिता, दिवालिया आदि शब्दों के अर्थ और
उनके प्रयोग व्यवसाय के क्षेत्र में सुनिशिचित है। समाचारपत्रों में बाजार भाव
बढ़ते समय ‘सोना लुढ़का, चाँदी ढीली,गे हूँ के भाव टूटे आदि प्रयोग मिलते हैं।
खेल कूद की
प्रयुक्ति के संदर्भ में हिंदी में हमें सलामी बल्लेबाज, मुक्केबाजी, निर्णायक टेस्ट, साझेदारी, पारी, छक्का,
चौका जैसे भाषा प्रयोग दिखाई देते हैं।
वैज्ञानिक भाषा
की महत्वपूर्ण विशेषता संकेतों और प्रतिकों का प्रयोग है। ये संकेत प्राय ग्रीक
अक्षरों या चिह्नो के रूप में प्रयुक्त होते हैं। किरणों के नाम अल्फा (α)किरणे ,बीटा (β)किरणे और गामा किरणे रखा गया है।
President or speaker-सामान्य सामाजिक राजनीतिक व्यवहार में इस शब्द के लिए हिंदी के
अर्थ-अध्यक्ष,सभापति,प्रधान। किन्तु संवैधानिक प्रयोजन के संदर्भ में राष्टपति शब्द
ही मान्य है। speaker शब्द जब विधानमंडलीय प्रयोजन-हेतु
प्रयुक्त होता है तब उसके समतुल्य ‘अध्यक्ष’शब्द का प्रयोग संगत होगा किन्तु आम सभा की कार्रवाई की प्रस्तुति का
प्रयोजन होगा तब इसका समकक्ष शब्द ‘वक्ता’ग्रहण होगा ।space-सामान्य व्यावहारिक प्रयोजनों में
यह शब्द आमतौर पर ‘स्थान’जगह। वैज्ञानिक
प्रयोजन में अंतरिक्ष होगा। पत्रकारिता-प्रयोजन की दृष्टि से यह अंतराल (दो शब्दों या पंक्तियों के मध्य
की दूरी) का बोध कराता है।
Birth- सामान्य सामाजिक प्रयोजनों में इस शब्द के लिए जन्म। रेल में सीट इन उदाहरणों
से यह प्रमाणित होता है कि हिंदी की प्रयुक्तियों का अपना संदर्भ,प्रकार्य और प्रयोग निश्चित हो गया है ।हम यह कह सकते हैं कि
कौन सा शब्द कार्यालय की हिंदी है,यह पत्रकारिता की हिंदी और
बैंक में प्रयुक्त हिंदी है। आर्डर के लिए –क्रम, आदेश, पोजीशन के लिए कही पद, ओहदा, कहीं
स्थिति, उपस्थिति कहीं मुद्रा।
रस – नीबू का रस, आम का रस । काव्यशस्त्रीय – शृंगार रस, वीर
रस, हास्य रस। यहाँ रस शब्द अलौकिक आनंद की ओर संकेत करता है
जबकि वनस्पति शास्त्र में इसका प्रयोजन एक विशिष्ट स्वादयुक्त सरल पदार्थ का बोध
कराना । यही शब्द आयुर्विज्ञान में किसी
वस्तु के सार तत्व का प्रयोजन व्यक्त करता है।
टिप्पणी– सामान्य
अर्थ – राय, मत, अभिमत आदि।
साहित्यिक प्रयोजन के क्षेत्र में टिप्पणी शब्द संदर्भ विशेष का घोतन कराता है। (मूल
पाठ में दिये गये किसी उद्धरण का संदर्भ पृष्ठांत में रेखा के नीचे ‘पाद टिप्पणी के रूप में दिया जाता है। कार्यालयी अथवा प्रशासनिक प्रयोजन
के क्षेत्र में आते ही यह शब्द विशेष निर्देश, अनुदेश अथवा
आकलन-सूचक अवधारण प्रस्तुत करता है। पत्रकारिता में एक लेख के रूप में।
आज के इस संगणक के युग में आज अनुवाद का नया स्वरुप सामने आया है जिसको हम
‘मशीनी अनुवाद’ की संज्ञा देते हैं| आज प्राकृतिक भाषा संसाधन के क्षेत्र में मशीन
की सहायता से अनुवाद का कार्य किया जा रहा है| जिसके लिए भाषाई नियमों का ज्ञान
मशीन को देकर उसे प्राकृतिक भाषा को समझने के लिए सक्षम बनाया जा रहा है| जिससे
भाषाओं से संबंधित कार्य उससे किए जाए| विश्व की प्राकृतिक भाषाएँ अपने संरचनात्मक
रूप में भिन्न हैं साथ ही उसके प्रयोग के अनुसार भी अर्थी भिन्नता पायी जाती है
जिसके कारण संदिग्धार्थाक स्थिति आ जाती है| कहने का तात्पर्य यह है की भाषा की
प्रयुक्तियाँ प्रयोग क्षेत्र या संदर्भ के अनुसार अर्थ प्रदान करती है जिसके कारण
अनुवादक को किसी पाठ का अनुवाद करते समय उसके संदर्भ के अनुसार ही सटीक अनुवाद
करना होता है| किन्तु मशीनी अनुवाद में इस संदर्भ अर्थ को समझना मशीन के लिए उतना
आसान नहीं है की जितना मनुष्य के लिए है इसलिए आज मशीनी अनुवाद के लिए क्षेत्र
विशेष के अनुसार ही भाषाई सामग्री(कार्पस निर्माण- शब्दकोश, थिसारस, व्याकरणिक
नियम) निर्माण का कार्य किया जा रहा है जिससे क्षेत्र विशेव्श के अनुसार ही उस
प्रयुक्ति के अर्थ को ग्रहण करने में आसानी होगी और इस क्षेत्र में आने वाली
समस्याओं को भी हल किया जा सके| इस प्रकार हम यह कह सकते है की अनुवाद के लिए प्रयुक्ति और
उसके प्रयोग क्षेत्र के अनुसार ही उसके संदर्भ-अर्थ को विशेष महत्व है जिससे हम शुद्ध
और सटीक अनुवाद कर पायेंगे|
संदर्भ सूची –
- गोरे, भारती (2004) अनुवाद
निरूपण; विकास प्रकाशन, कानपूर।
- चन्द्र, रमेश
(2005) राज्यभाषा हिंदी और तकनीकी अनुवाद; कल्याणी शिक्षा परिषद प्रकाशन, नई
दिल्ली।
- श्रीवास्तव,
रवीन्द्रनाथ(2002) सैद्धांतिक एवं अनुप्रयुक्त
भाषाविज्ञान; साहित्य सहकार प्रकाशन ,नई
दिल्ली।
- कुमार, सुरेश (1986) अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा; वाणी
प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली ।
- गोस्वामी, कृष्ण कुमार (2008) अनुवाद विज्ञान की भूमिका; राज्यकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
हिंदी स्वर तथा व्यंजन वर्णों के
ध्वनिगत मूल्य
सुधीर जिंदे / शिल्पा
वर्ण स्वनात्मक/ ध्वनिगत
मूल्य
अ निम्नतर
मध्य
अगोलित ह्रस्व स्वर
इसका उच्चारण 'ह' वर्ण के पूर्व [ह्रस्व 'ऐ']
भी होता है, जैसे-
'कहना' में।
'वह' में इसका उच्चारण [ह्रस्व 'ओ'] भी है।
आ निम्नतर
निम्न मध्य अगोलित दीर्घ स्वर
इ निम्नतर उच्च अग्र
अगोलित ह्रस्व स्वर
ई उच्चतर उच्च अग्र
अगोलित दीर्घ स्वर
उ निम्नतर उच्च पश्च
गोलित ह्रस्व स्वर
ऊ उच्चतर उच्च पश्च
गोलित
दीर्घ स्वर
ए उच्चतर मध्य अग्र
अगोलित दीर्घ स्वर
ओ उच्चतर मध्य पश्च गोलित दीर्घ स्वर
ऑ उच्चतर निम्न पश्च
गोलित दीर्घ स्वर
ऐ निम्नतर मध्य अग्र अगोलित दीर्घ स्वर
'य' के पूर्व संध्यक्षर [अइ], जैसे- भैया, गैया, ऐयाश
औ निम्नतर मध्य पश्च
गोलित दीर्घ स्वर
'आ' या 'व' के पूर्व संध्यक्षर [अउ], जैसे - कौआ/कौवा, हौआ/हौवा
ऋ देवनागरी वर्णमाला में 7 वाँ वर्ण है। संस्कृत में यह
स्वर माना गया है। हिंदी में इसका ध्वनिगत मूल्य [रि] है। लेकिन यह एक विशिष्ट वर्ण
है,
क्योंकि 'ऋ' की मात्रा भी होती है और मात्रा
केवल स्वर
की होती है। इसलिए इसको स्वर वर्ण तो कहा जा सकता है जबकि
इसका ध्वनिगत मूल्य व्यंजन+स्वर है।
वर्ण स्वनात्मक/ध्वनिगत वर्णन
क
कोमल तालव्य अघोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
ख कोमल
तालव्य अघोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
ग कोमल
तालव्य घोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
घ कोमल
तालव्य घोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
ङ कोमल तालव्य घोष नासिक्य व्यंजन
च तालव्य अघोष अल्पप्राण स्पर्शसंघर्षी व्यंजन
छ तालव्य अघोष महाप्राण स्पर्शसंघर्षी
व्यंजन
ज तालव्य घोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
झ तालव्य घोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
ञ तालव्य घोष नासिक्य व्यंजन
ट मूर्धन्य अघोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
ठ मूर्धन्य अघोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
ड मूर्धन्य घोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
ढ मूर्धन्य घोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
ण मूर्धन्य
घोष नासिक्य व्यंजन (आजकल हिंदी में इसका उच्चारण [ङँ] हो गया हैं।)
त दंत्य अघोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
थ दंत्य अघोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
द दंत्य घोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
ध दंत्य घोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
न वर्त्स्य घोष नासिक्य व्यंजन (दंत्य व्यंजनों के पहले इसका उच्चारण दंत्य हो जाता है, जैसे- अंत, पंथ में)
प द्व्योष्ठ्य अघोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
फ द्व्योष्ठ्य अघोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
फ़
दंत्योष्ठ्य अघोष संघर्षी व्यंजन
ब द्व्योष्ठ्य घोष अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन
भ द्व्योष्ठ्य घोष महाप्राण स्पर्श व्यंजन
म द्व्योष्ठ्य घोष नासिक्य व्यंजन (‘व’ के पूर्व दंत्योष्ठ्य,
जैसे- संवाद)
य तालव्य घोष अर्धव्यंजन
र वर्त्स्य घोष लुंठित व्यंजन
ल वर्त्स्य घोष पार्श्विक व्यंजन
व दंत्योष्ठ्य घोष अर्धव्यंजन
श तालव्य अघोष संघर्षी व्यंजन
ष मूर्धन्य अघोष संघर्षी व्यंजन (यदि यह
मूर्धन्य ध्वनि के पहले न आए तो इसका उच्चारण आजकल हिंदी में तालव्य
[श] होता है।)
स वर्त्स्य अघोष संघर्षी व्यंजन
ह काकल्य अघोष/घोष संघर्षी व्यंजन
ड़ मूर्धन्य अल्पप्राण उत्क्षिप्त व्यंजन
ढ़ मूर्धन्य महाप्राण उत्क्षिप्त व्यंजन
ज्ञ
यद्यपि यह संस्कृत में ‘ज+ञ’ का संयुक्त वर्ण है। संप्रति हिंदी में इसका उच्चारण [ग्य] होता है।
क़
अलिजिव्हिय अघोष स्पर्श व्यंजन
ख़
कोमल तालव्य अघोष संघर्षी व्यंजन
ग़
कोमल तालव्य सघोष संघर्षी व्यंजन
ज़
वर्त्स्य घोष संघर्षी व्यंजन
एस. एम. एस. की भाषा का भाषिक विश्लेषण
भूमिका -
उत्तर आधुनिक समय में समाज
के प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव दिखाई पड़ रहा है ; कला,संस्कृति, विज्ञान आदि
क्षेत्रों में बदलाव आ रहे हैं जो आपरिहार्य हैं,और भाषा भी इससे अछूती नहीं है । मनुष्य ने शुरूआती समय से ही अपनी सुविधा के लिए नई नई चीजों का निर्माण
करता चला आ रहा है । किंतु समय बिताता गया और एक समय ऐसा आया कि जब
मनुष्य को लगने लगा कि अब करने के लिए क्या है? लेकिन मनुष्य की नया करने की प्रकृति आज भी बनी हुई
है,
इसका उदाहरण है यह है कि आज वह reconstruction के काम
में लगा है,खुद की बनाई गई चीजों को वह तोड़ मरोड़ रहा है और
दुनिया के नएं रूप में सामने रख रहा है ।
कुछ यही स्थिति हम भाषा के क्षेत्र में देख
रहें हैं, जिसमें पहले व्याकरण के नियम बनाए गए थे
जिसके अंतर्गत भाषा को सुविधापूर्ण बनाया गया था किंतु नोम चाम्स्की ने इन सभी को
तोड़ते हुए नए विचार प्रदान किए एवं एक नई
धारा प्रदान की । इसी संदर्भ में आज हम
एस. एम. एस. की बात करें तो एस. एम. एस.
ने आज एक नई भाषा का निर्माण किया
है। जिसका कोई व्याकरण उपलब्ध नहीं
है, न ही किसी शब्द कोश में किसी शब्द का अर्थ उपलब्ध है और न
ही वह शब्द मिलते है ,केवल उपयोगकर्ता को ही एस. एम. एस. की भाषा समझ में
आती है ।
यह समाज में नई संस्कृति का निर्माण करती है, साथ ही एस. एम. एस. की भाषा अपने ही समूहों तक मर्यादित होती
है जो अन्य समूहों से दूरी बनाए रखने की
लगातार कोशिश करती है । किसी भी शब्द को
बनाने के लिए संकेतक (signifier)एवं संकेतित (signification)की जरुरत होती है जो क्षेत्रीय स्तर पर अलग अलग होती है वैसे ही शब्दों
के उच्चारण के बाद मनुष्य के मस्तिष्क में बनने वाले चित्र अलग अलग होते हैं।
उदाहरण के लिए हिंदी के जानने वालों के बीच आकार आलू के बजाय बटाटा (यह शब्द आलू के लिए मराठी में
उपयोग किया जाता है ) शब्द का उपयोग करें
तो वह मराठी भाषा को न जानने के करण उस समूह के मस्तिष्क में कोई आकृति नहीं बनेगी
यह एक तरह से अजनबियत को उत्पन्न करता है ।
किंतु अब हम देखते है कि आज मोबाईल
क्रांति के पश्चात सम्प्रेषण के क्षेत्र
में बदलाव आया है न केवल वाचिक बल्कि लिखित रूप (एस.एम.एस.) भी तेजी से व्यवहार
में आया है । भाषा के सारे नियमों एंव
व्याकरण को तोड़ दिया है । जो हर
रोज नए शब्द गढें जाते हैं । और आश्चर्य
जनक बात यह की इसका कोई रचयिता नहीं है ।
इसे स्वयं उपयोगकर्ता द्वारा बनाया जाता है। जो अपने उपयोग के लिए ही है। इस
संदर्भ में न जाने क्यों एस.एम एस. की भाषा मुझे पूरी तरह लोकतान्त्रिक लगने
लगती है । क्योंकि यही वह
भाषा है जो लोगों ने लोगों द्वारा एवं लोगों के लिए है अन्यथा आज तक हम देखते
है की हर क्षेत्र में विशेषीकरण (specialization)होने के
कारण उस क्षेत्र के विद्वान, विशेषज्ञ एवं बुद्धिजीवी अपने विचारों एवं शोध द्वारा
प्राप्त तथ्यों को लोगों पर थोपते रहते
हैं , एक एस.एम.एस. की भाषा एक ऐसा क्षेत्र है, जो पूरी तरह आम लोगों द्वारा बनाया
गया है जिसका संचालन पूरी तरह आज भी उनके
हाथों में है ।
शायद आने वाला कल याइसके विशेषज्ञ
इसका पेटेंट भी अपने नाम करवाएं किंतु आज वर्तमान में एस.एम.एस. की भाषा पूरी तरह
स्वतंत्रा को बरक़रार रखते हुए लोगों में नवनिर्मिती की सोच को बढ़ाने का कम कर रही है जो एक सभ्य
समाज में अच्छा परिवर्तन माना जाएगा ।
एस. एम. एस. एक नई
संप्रेषण की प्रणाली है । यह हमें
मोबाईल एवं पेजर से जोड़ता है। यह सरल मोबाईल एक संचार प्रोटोकाल (communication, protocol) मोबाईल टेलीफोन
उपकरणों के बीच लघु सन्देशों का आदान –प्रदान करने की अनुमति प्रदान करता है
। संप्रेषण एक सहज मानवीय प्रक्रिया है
जिसमें एक से अधिक व्यक्ति या दो व्यक्तियों (वक्ता एवं श्रोता ) में रहते हुए
किसी सूचना या विचार का आदान –प्रदान करते
हैं ।
इसमें भाषा आधारभूत साधन का कार्य करती है वक्ता द्वारा सूचना या विचार को
भाषिक रूपों (linguistics forms)में बोलकर या लिखकर कोड़ीकृत
किया जाता है और श्रोता उन उच्चरित या लिखित रूपों को सुनकर या पढ़कर सूचना
या विचार को कोड रूप से डिकोड करता है। एस.एम.एस. सीमित शब्दों में संक्षिप्त सन्देश
भेजने की मोबाईल कंपनियों द्वारा प्रदत्त
सुविधा है । इसे हिंदी में ‘सरल मोबाईल सन्देश सेवा’ कहा गया है किंतु हमें
‘संक्षिप्त सन्देश सुविधा’ हिंदी रूपांतरण अधिक सटीक जान पड़ता है, इसमें मोबाईल कंपनियों द्वारा अलग–अलग शब्द
सीमा देते हुए चार्ज के रूप में कुछ पैसा लिया जाता है इसमें दैनिक साप्ताहिक एवं मासिक एस.एम.एस. जैसी सुविधाएँ
भी देखी जा सकती है ।
एस. एम. एस. : परिचय –
एस. एम. एस.
एक नई संप्रेषण की प्रणाली है।यह हमें
मोबाइल एवं पेजर से जोड़ता है। यह सरल मोबाइल एक संचार प्रोटोकाल
(communication, protocol) मोबाइल
टेलीफो नई उपकरणों के बीच लघु सन्देशों का अदान –प्रदान करने की अनुमित प्रदान करता है।संप्रेषण एक सहज मानवीय
प्रक्रिया है जिसमें एक से अधिक व्यक्ति या दो व्यक्तियों (वक्ता एवं
श्रोता
) में रहते हुए किसी सूचना या विचार का
अदान
–प्रदान करते हैं।
सामान्यतःप्रत्येक व्यक्ति
एस.एम.एस.
अपनी भाषा में ही लिखता है किन्तु रोमन लिपि जानने वाले लोगों द्वारा
प्रायःएस.एम.एस. रोमन
लिपि में ही लिखे जाते है। रोमनलिपि के वणों (letters)के सामान्य
उच्चारण (वर्णमाला
alphabet में ) और शब्दों में होने वाले उच्चारण
के बीच अंतर से हम सभी पररिचत हैं ; जैसे :
वर्ण वर्णमाला
में शब्दों में उदहारण-
उच्चारण उच्चारण
A ए अ,एDhaka=अ, Abstract=ऐ
B बी बlab=ब
C सी क, सcement=
स cat=कआदद।
इसी प्रकार अन्य सभी वर्णों को भी देखा जा सकता है। इससे अतिरिक्त प्रत्येक वर्ण
के
(वर्णमाला में प्राप्त ) सामान्य उच्चारणात्मक स्वरूप के समान कुछ शब्दों का उच्चारण
भी होता है। जैसे :
वर्ण वर्णमाला
में शब्द
उच्चारण
A ऐ a=एक
B बी be=hona, bee= मधुमक्खी
C सी see= देखना, sea=समुद्र
आदि .......
इसी प्रकार की स्थिति कुछ सांखिकीय वर्णों (numeric characters) में भी पाई जाती ; जैसे 2=two,to,too
.आदि
एस.एम.एस लेखन में संक्षिप्तता की महत्ता को देखते हुए रोमन वर्णों की इस
विशेषता का लाभ उठाते हुए वर्तमान SMS लेखन की जो नई पद्धति विकसित हुई है
उसमें सामान्य लेखन के नियम धरे के धरे रह गए है । अब चूँकि
भाषिक रूप (या सम्पूर्णतः भाषा ) संप्रेषण का मध्यम है और एस.एम.एस. द्वारा
हमारे समाज में व्यापक स्तर पर संप्रेषण
हो रहा है अतः इस नवीन संप्रेषणात्मक विधा की संरचना पर भाषा वैज्ञानिक
दृष्टि से विचार कार एक नई विश्लेषण प्रणाली का विकास आवश्यक हो जाता है ।
एस. एम. एस. : भारतीय परिदृश्य: -
भारत एक विविधता
में अनेकता वाला देश है जहाँ पर बहुत सारी भाषाएँ बोली जाती है जैसे इस उक्ति में
कहा गया है – कोस –कोस
पर पानी बदले चार कोस पर बानी ।
इस तरह आज के आधुनिक समय में उससे भी ज्यादा परिवर्तन दिखता
है । जिसमें अंग्रेजी भारतीय भाषाओं पर
हावी होने लगी है, हिंदी का हिंग्लिश हो रहा है ।
प्रौद्योगिकी क्रांति के पश्चात
ज्ञान का महत्व बढ़ गया और यह ज्ञान मात्र ज्ञान न रहकर परिचालन का ज्ञान है
जो यह जानता है कि वह ज्ञानी माना जाने
लगा है ।
इस तरह से आने वाले बदलाओं
का महत्वपूर्ण कारण मोबाइल है जिसमें संचारक्रांति के बाद महत्वपूर्ण बदलाव
आया है ।
आज अंग्रेजी का उपयोग मराठी हिंदी पंजाबी आदि भाषाओं में लगातार बढ़ता जा
रहा है एवं अंग्रेजी में संक्षिप्तिकरण के
कारण आने वाले समय के लिए खतरा बनता दिखाई पड़ रहा है।
जहाँ एस.एम.एस. की बात करें तो लगभग मान्यता प्राप्त सभी भाषाओं में एस.एम.एस.
लिखे जा रहे कुछ भाषाओं के एस.एम.एस.निम्न प्रकार
देखे जा सकते है ।
हिंदी एस.एम.एस.
मराठी भाषा में एस. एम.एस.-
भोजपुरी एस.एम.एस. :-
१.
रूप के
आधार पर
·
पाठ के रूप में
·
कोडीकृत
रूप
·
मल्टीमीडिया
रूप
२.
भाषा
के आधार पर
·
एक भाषिक एस.एम.एस.:
·
हिंदी एस.एम्.एस.:
·
अंग्रेजी
एस.एम.एस.
· प्रादेशिक भाषा में एस.एम.एस.:
·
द्विभाषिक
एस.एम.एस.:
·
हिंदी
और अंग्रेजी एस.एम.एस.
·
हिंदी और प्रादेशिक भाषा में एस.एम.एस
·
बहुभाषिक एस एम.एस.
सामाजिक प्रयोग
के आधार पर-
सामाजिक प्रयोगों के आधार पर अगर देखा जाये तो
बहुत सारे एस.एम.एस.का प्रयोग किया जाता
है। अगर एन एस.एम.एस. की गणना की
जाए तो लगभग सैकड़े की गिनती को पार
कर सकते हैं । जिसमें जन्म से लेकर
मरणोपरांत के एस.एम.एस. का प्रयोग होता है ,तथा तिथि से लेकर बड़े त्योहारों तक
एस.एम.एस. शामिल है तथा कुछ ऐसे भी एस.एम.एस.प्रयोग किया जाता है जो एक सभ्य समाज में नहीं स्वीकार करते
हैं; जैसे – adault sms का युवाओं में भरपूर प्रयोग होता है।
मैंने जो कुछ मोबाइल के एस.एम.एस. का
विश्लेषण किया है जिनमें शुभ
–प्रभात शुभ रात्रि, good morning से लेकर good night
एवं शुभ कामनाओं के sms ज्यादा प्राप्त हुए है
। इनके आलावा बहुत सारे एस.एम.एस. है जो
निम्नलिखित है –
Love sms- Chahat Teri Pehchan He Meri…
Mahobbat Teri Shaan He
Meri…
Hoke Juda Tujse Kya
Reh Paunga…
Tu To Aakhir Jaan he
Meri…
sad sms- Meri Saansein
Sirf Tere Hi Naam Par Chalti Hai,
Meri Aankhein Sirf Tujhe Hi Dekhna Chahti Hai,
Yun To Aur Bhi Dost Kai Hai Mere,
Na Jane Kyu Dil Ko Sirf Teri Hi Yaad Aati Hai
friendship sms - Kuch saalo baad najane kya sama hoga,
Najane kaun dost kaha hoga,
Phir milna hua toh milenge yaadon mein,
Jaise sukhe gulab milte hai kitabon mein
इस प्रकार से बहुत से ऐसे एस.एम.एस.है जिनको आप निम्न प्रकार से देख सकते हैं:-
·
एस. एम.
एस. लेखन : संक्षिप्त शब्द निर्माण:
आधुनिक समय में इतनी तेजी आई है की मनुष्य हर क्षेत्र में shortcut से काम चलाना चाहता है
चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो shortcut अपनाने से नहीं चुकता है
। अब यही पर ले लिया जाए की एस.एम.एस.खुद
अपने आप में संक्षिप्त रूप में होता है । एस.एम.एस. में शब्द अपने सामान्य रूप में
नहीं लिखे जाते बल्कि उनका संक्षिप्तीकरण कर दिया जाता है । जैसे – 2da= today, gr8= great , 4get=
forget,b4= before, ilu = I love you, c = see, sea. Knpr = Kanpur,
alld=allahabad, hdbd=hyderabaad, barabar= ‘=’, gaya= gya इत्यादि ।
एस.एम.एस लेखन में शब्दों के संक्षिप्तिकरण में निम्नलिखित
प्रक्रियाएँ होती हैं
क. प्रतिस्थापन (replacement): इसे निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है
१.
शब्द के लिए वर्ण (latter for word) रोमन लिपि में
अनेक वर्णों (मुख्यतः a,c,e,r,v,t,y,f,u,d,g,x,l,) के
उच्चारण की तरह कुछ शब्दों का उच्चारण भी
होता है । अतः इन शब्दों के आने पर इनकी
जगह उच्चारण साम्य वाले वर्णों को ही रख दिया जाता है जैसे : where are
you = where r u?
See you again = c
u again.
इस तरह के
शब्द और वर्णों की समानता हिंदी में भी
कुछ हद तक पाई जाती है । अतः रोमन में
लिखते समय इस प्रकार के शब्दों के आने पर केवल उन वर्णों को ही रख दिया जाता है
। जैसे – वह भी आया =wah v aaya
२.
शब्द के लिए संख्या (number for word) कुछ अंको क
उच्चारण भी शब्दों के सामान होता है । उन
शब्दों के आने पर शब्द की जगह (अंक या
संख्या) रख दिया जाता है।
I got eight rupees. =
igot 8 rupees.
He come too late.= he come 2 late
हिंदी में भी कुछ ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं जैसे :
Tu
kyon nhi aya.= 2 kyo nhi aya.
३.
शब्द के लिए चिन्ह (symbol for word): कुछ शब्दों के लिए एस.एम.एस. में शब्द की
जगह पर उनके लिए निर्धारित चिन्हों का प्रयोग किया जाता है ।
जैसे : Ram and Shyam are going = Ram & Shyam r
going.
हिंदी में
भी इस प्रकार के प्रगोग देखे जा सकते हैं
।
जैसे – Ram aur rohit ne hisaab barabar kiya= Ram aur
rohit ne hisaab = kiya
ख. वर्ण विलोपन (letter Removing): एस.एम.एस. निर्माण के
दौरान शब्दों क संक्षिप्तीकरण करते हुए ध्वन्यात्मक प्रखरता और भेद के आधार पर गौण
वर्णों को हटाकर केवल मुख्य वर्णों (main/key letters) को
रहने दिया जाता है अथवा उनके आरम्भ , मध्य या अंत से कुछ वर्णों को हटाकर उनकी जगह
ध्वन्यात्मक साम्य वाली संख्या या चिन्ह को रख दिया जाता है ताकी शब्द संप्रेषणीय रहे इस प्रक्रिया को वर्ण
विलोपन कहते हुए इसके दो प्रकार की ये जा सकते हैं :
१.
गौण वर्ण विलोपन (removing miner letter): शब्दों
को छोटा करने के लिए प्रायः उन वर्णों को शब्द से हटा दिया जाता है जिनके बिना भी
बचे वर्णों के मेल से निर्मित शब्द द्वारा अर्थ प्राप्त हो जाए । जैसे : he went to Hyderabad and
Bangalore.= he went hdbd & bnglr.
हिंदी
शब्दों के साथ भी यह प्रक्रिया देखी जा सकती है ।
Vah Hyderabad aur
Bangalore gaya.= vah hdbd & bnglr gya.
जब
शब्दों का संक्षिप्तिकरण किया जाता
है तो ज्यादातर स्वर को ही विलोपित किया
जाता है चाहे वह अंग्रेजी का शब्द
को हो या फिर हिंदी के शब्द हों । जैसे – Hyderabad = hdbd, gaya में ‘a’ को तथा Bangalore= bnglr में ‘a,o,e’ इत्यादि वर्णों को विलोपित किया
गया है ।
२.
वर्णों की जगह संख्या का प्रयोग : एस.एम.एस. के लेखन में कुछ शब्दों के निर्माण
में उनके मध्य में या आरम्भ में तथा अंत में भी कुछ शब्दों को निकलकर उनकी जगह
उच्चारण में सामान संख्या को (या अंक) को रख दिया जाता है : जैसे – go there before night= go there be4 ni8.
I saw fourteen boys= I saw 4teen boys.
हिंदी में
भी ऐसे शब्दों का निर्माण होता है ।
Maine charminaar dekha
.= maine 4minaar dekha
Maine subh samachar
part padha= maine sama4 patra padha .
ग.
संक्षिप्त रूप (Abbreviation) सामान्य ,प्रचलित और
सर्वाधिक आवृति वाले शब्दों के सक्षिप्त रूप (Abbreviation)
Good morning = gm
Take care = tc
आदि ।
किंतु एस.एम.एस.लेखन में की ए जाने वाले
संक्षिप्तीकरण में बड़े अक्षर (capital
letter) का प्रयोग तथा उसके साथ डॉट (.) का
प्रयोग (जैसे : G.M.) आदि के नियमों का पालन नहीं किया जाता ।
एस.एम.एस. लेखन में शब्द संखिप्तिकरण में
सामान्यतः प्रयुक्त होने वाले अंक , प्रतीक
तथा संक्षिप्त रूप और इनके द्वारा संकेतित सामान्य शब्द (या विस्तार) इनकी
सूची निम्न प्रकार है :
हिंदी शब्दों का शब्द संक्षिप्त :
S= से
B= भी
H= है
Dr = डर
Tavir = तस्वीर
Prm = प्रेम
Kr = कर
Mn = मन
1,7= एक साथ
Mbil= मोबाइल
Dl = दिल
Rni = रानी
Chnd= चाँद
Stre = सितारे
Sbh = शुभ
मराठी में शब्द संक्षिप्त:-
1kch= एकाचे
Tr = तर
Vr = वर
1kte = एकटे
J1= जेवण
A= ये
T= ती
Jat = जात
3 ने = तीने
8,1= आठवण
2= तू
1da= एकदा
Kute= कुठे
Ami= आम्ही
Ete= इथे
अंग्रेजी शब्द संक्षिप्त :-
1dRfl - wonderful
2 - to/too/two
2dA - today
2moro - tomorrow
2nite - to night
GR8 -
"Great"
4 - for
व्याकरण के नियमों का अतिक्रमण:-
जब किसी भाषा की संरचना में कोई परिवर्तन हो या फिर शब्द
निर्माण की प्रकिया हो, इन सारे परिवर्तनों में व्याकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती
है । यह परिवर्तन उसी भाषा के व्याकरण के
अनुसार होता है । यदि भाषा के शब्द
निर्माण की प्रक्रिया पर विचार करें तो भाषा में शब्द निर्माण की प्रक्रिया कई ढंग
से होती है । कभी उपसर्ग लगाकर, कभी
प्रत्यय लगाकर, कभी दो शब्दों के मेल से आदि कई प्रकार से शब्द का निर्माण हम कर
सकते हैं। हिन्दी भाषा की शब्द संरचना की
प्रकिया कुछ इस प्रकार से देखी जा सकती है :-
धातु + प्रत्यय =
शब्द
धातु + उपसर्ग =
शब्द
धातु + मध्य
प्रत्यय = शब्द
हिन्दी भाषा की
शब्द निर्माण प्रक्रिया में –
पढ़ + आई = पढ़ाई
प्र + भाव = प्रभाव
इसी प्रकार अन्य भाषाओँ में भी शब्दों का
निर्माण किया जाता है जबकि एस.एम.एस. की
भाषा इस प्रकार से शब्दों का निर्माण नहीं
किया जाता बल्कि एस.एम.एस. भाषा में कुछ विशेष प्रकार से शब्दों का निर्माण
किया जाता है । शब्दों को संक्षिप्त करके
नए शब्द का निर्माण किया जाता है या अंकों के संयोग से और विशेष सिम्बलों से
शब्दों का निर्माण होता है; जैसे - S= से , Ami= आम्ही
, Ete= इथे ,8,1= आठवण , 1,7= एक साथ
इन शब्दों के निर्माण में न कोई व्याकरण है, न ही कोई
व्याकरणिक नियम लागू होता है । किसी भी
भाषा के इस तरह से शब्दों का निर्माण एवं शब्द प्रयोग नहीं होता है जिस प्रकार
एस.एम.एस. में प्रयोग एवं निर्माण किया जाता है।
इस एस.एम.एस. प्रणाली ऐसे शब्दों का निर्माण नहीं होता है जिससे नए अर्थ का
बोध हो जबकि व्याकरण सम्मत तैयार शब्दों से एक नए अर्थ की प्रतीति होती है ।
संदर्भ सूची:-
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Adbola Otemuyiwa, abstract ,The
Emergence of new linguistic features in SMS text messages
2.
Beal, Vangie (2011)Text Messaging
and Online Chat Abbreviations, Webopedia
3.
Bhattacharya dr. Monali, abstract
unveiling the : an analysis of linguistic competence v/s linguistic performance
of the general variety of English in India today-the oust for a paradigmatic model
4.
Christian Viard –Gaudin, Abstract,
language models for handwritten short message services
5.
Prasad, Dhanji & Bharati, Ranjeet, Research Paper,
SMS: New Mode of Communication and its Linguistic Aspect.
6.
Rafi,
Muhammad Shaban : SMS Text Analysis: Language, Gender and Current
Practices
7.
Sabreena ahmed , abstract , The use
of SMS and Language transformation Bangladesh
8.
T R O S B Y , F I N N : SMS, the
strange duckling of GSM
वेबसाइट :
en.wikipedia.org/wiki/SMS
http://www.txt2nite.com/forum/viewtopic.php?t=136
http://en.wikipedia.org/wiki/SMS
PERSONAL REFLECTIONS ON TRIBAL PHILOSOPHY
BY
DEEPTI EKKA
M.PHIL. (TRANSLATION
TECHNOLOGY)
INTRODUCTION
The whole world moves
according to some forces that are not in our control. Every tiny flower, each
drop of rain, a single beautiful thought and many more subtle things of life
fills the human mind with wonder. When a person is in the midst of this world,
he cannot help but just respond to the realities around him. This is exactly
what the tribals in the area of Chotanagpur have contributed to the field of
philosophy. Philosophizing is not limited to rational argumentation like the
westerners, but also is a mutual response and abiding harmony with the realities
in and around us. The long oppressed people of the Chotanagpur region have
contributed some of the best thoughts to broaden the human understanding and
assist one in life. Though the rate of development in this area is quite low,
the people have a highly developed sense of intercommunion with the aspects of
human, cosmic and the Divine.
LESSONS FROM THE
BASICS OF TRIBAL PHILOSOPHY
The foundation of tribal
philosophy has given many insights to me. Some of them are as follows:
1.
Every person has a philosophy and none of him or her has to
be considered as superior or inferior. Good things have to be accepted from all
sides of the world.
2.
The main aim of tribal philosophy is to maintain the abiding
cosmotheandric intercommunion. It inspires me to be more tuned into nature and
the Divine consciousness.
3.
Philosophizing is experiencing realities around us. By
experiencing the world, we can get rid of the evil, which is rooted in greed
and pride.
4.
Every action or event in the life of a tribal has an idea or thinking
behind it. This purpose colours the thinking, mode of relating and way of
behaviour. This is termed as myth. Nothing is done simply for the sake of doing
it.
5.
We can learn from tribal notion of myth that I unconsciously
am directed by a myth, which is based on my experience of life, and I live
according to it. This also eradicates the general idea of myth and helps me to
know that a myth is a narrative based here and now, which is a part of my life
and thinking pattern.
REFLECTIONS ON
TRIBAL MYTHS
Tribal myths are narratives,
which try to explain about the events that determine life of a person. Some of
the reflections on these myths are as follows:
1.
The Creation myth inspires me to be aware of the role of
every thing, living and non-living, seen and unseen, in the sustenance of the
world. Therefore, I must maintain a harmonious relationship with everything.
Every reality is a gift and I do not own anything of my own.
2.
The other myths inspire me to build a closer relationship
with God. This can be done by trying to imitate his quality of benevolence as
given in the myth of the creation of the Sun and Moon.
3.
The myths also teach me to restrain myself from the evil
tendencies of greed, pride self- centeredness, possessiveness, etc. The
solution for uprooting evil is becoming humble and accepting servant hood as
given in the Asur Legend.
REFLECTIONS ON
SYMBOLIC EXPRESSIONS
The tribals have used a systematic
symbolic way to express their solidarity with God and with nature through
various rites of passage and festivals.
1.
The division of every significant event of life into three
stages i.e. separation, liminal and incorporation gives new insight to know
about the importance of the closeness with the community with which I live. I
realise the real importance of my community only when I am separated from it.
2.
Every rite of passage deals with the aspect of observing the
natural omens. This shows the close relationship between nature and humans.
3.
Tribal people believe in intercommunion even with the person
who has breathed one’s last. This fosters the remembrance of the dead and a
sense of eternal union with them.
4.
Every feast celebrates and commemorates the union between
humans along with the Divine and cosmic aspects of life. The Divine aspect is
revered with sacrifices while the cosmic aspect is depended upon because it
determines the life cycle and calendar of the humans.
REFLECTIONS ON
STRUCTURAL EXPRESSIONS
The tribals have a structural
expression of solidarity with the community. This communitarian principle is
one of the most noteworthy aspects that are contributed by them to the world of
philosophy.
1.
The tribals have developed a sense of an eternal relation
with their ancestors, both primordial and historical. This leads to develop
their solidarity and continue it within their family, village, clan and tribe.
This inspires me not to forget my roots from where my life was nourished. It is
also a very good lesson to those who abandon their parents to the mercy of old
age homes.
2.
The principle of clan exogamy and tribe endogamy inspires me
to follow the sense of goodwill and in my relations with the people all around
me. However, it may be difficult to practice it in today’s context, but the
tribals have set up an example of it.
3.
The sense of solidarity extends not only to the visible level
but also to the invisible level. This is seen when a person is given both
sacred and secular functions.
4.
The tribals follow the ontonomic principle of life unlike the
individualistic principles of heteronomy and autonomy of the western thinking.
It inspires me to foster a team spirit in every aspect of my life. This must be
the reason why tribals are always good at games that demand a collective
effort.
REFLECTIONS ON
TRIBAL ETHICS AND SPIRITUALITY
The tribals have a simple and
uncomplicated sense of understanding the aspects of good and bad in their life
in the world. There are some ideas, which broaden the horizon of my thinking
and living.
1.
The tribals have a firm belief that all evil is caused by
humans because of the roots of evil i.e. greed and pride. All evil causes the
destruction and disruption of the cosmotheandric intercommunion. This alerts me
to be aware of my action because my evil action has the potential to disrupt
and spoil the harmony and happiness, not only of myself but also of the
realities around me. It may be in any form i.e. personal destruction or even in
natural calamities.
2.
The aspect of forgiveness in the tribals is seen in
sacrifices. They may be lacking in the quality of mercy but it is a firm belief
that retribution will restore the solidarity of all beings.
3.
Through the myth of witchcraft, the tribals have inculcated
the sense that humans should not oppress each other. Witchcraft is seen in the
behavioural level of humans.
4.
Good actions refer to those, which promote the welfare of the
whole community. Any action limited to the interests of an individual is
considered as evil because it promotes greed and pride.
5.
Good actions are not instinctive but are based on the free
choice of a person. A person has to choose either to foster the cosmotheandric
intercommunion or its destruction.
6.
Worship is not an individual affair. It is a collective
effort where the intercommunion of all aspects is seen concretely. This is
similar to the saying of Jesus, “Where two or three are gathered in my name I’m
with them.”
7.
Spirituality is not to be thought and left out. It becomes
fruitful only when it has been applied and practiced in our daily life.
8.
Asceticism and mysticism are just means. In themselves,
without an application in the existence of a being, they are empty.
CONCLUSION
The people of the tribal land
have a deep relation with every aspect of the world, nature and with the
Divine. The basis of their philosophy leads them to have a sense of equality with
all beings. Their thoughts inspire everyone to be down-to-earth and ordinary
because only when one is ordinary can one observe realties and respond to them
in full spontaneity. Philosophy is not strict reasoning or mere mental
exercise. You live life in the way shown by philosophy. Life is the most
precious gift given to us. This opportunity is given to us and it is our choice
to use it for the welfare of everyone. The tribal philosophy, which was
revealed to us through the course on Tribal Philosophy, has been of great help.
The whole of the course can be summarised in this sentence: To walk alone in
life is easy but it leads to destruction of the whole system around you.
Walking with everything around you is the best way to live, dying to your self
is the highest good you can do for maintaining the intercommunion with
realties.
अंतरप्रतिकात्मक अनुवाद
सुधीर ज़िंदे
शोधार्थी
पीएच.डी.अनुवाद प्रौद्योगिकी
अंतरप्रतिकात्मक अनुवाद में एक प्रतीक
व्यवस्था में दिये गए पाठ को दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अंतरित किया जाता है। अंत:
भाषिक अनुवाद और अंतरभाषिक अनुवाद से इसकी तुलना करें तो अंतरप्रतिकात्मक अनुवाद
में अनुवादक को न केवल भाषिक प्रतिकों से जूझना पड़ता है बल्कि भाषेतर प्रतीक
व्यवस्था से भी जूझना पड़ता है। और नाइडा की अनुवाद की परिभाषा के अनुसार स्त्रोत
भाषा की प्रतीक व्यवस्था में निहित अर्थ का अंतरण लक्ष्य भाषा की प्रतीक व्यवस्था
में अनुवाद कराते समय किया जाता है तब उन दोनों प्रतीक व्यवस्थाओं के बीच अर्थ के
अंतरण की प्रक्रिया का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। इसे एक उदाहरण के रूप
में समझे – जब कोई उपन्यासकर अपने उपन्यास में राम के किरदार को बताते हुये लिखता
है कि ‘राम बीमार था’। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से हम इसे एक
लिखित ध्वनि प्रतिकों की व्यवस्था मानते है जिसका एक विशिष्ट अर्थ है। इस वाक्य का
जब रूपांतरण किसी फिल्म के दृश्य में किया जाता है त एक वाक्य के लिए कई भाषेतर
प्रतिकों का प्रयोग उस वाक्य में निहित अर्थ को फिल्म के माध्यम से संप्रेषित करने
का प्रयास किया जाता है। यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण है। शब्द(lexical) अर्थविज्ञान शब्द में निहित अर्थ के संदर्भ में यह कहता है कि किसी शब्द
को पढ़ते ही पाठक उसमें निहित अर्थ को जीतने प्रतिशत ग्रहण करता है उसी के आधार पर
उसे दूसरे संप्रेषन के माध्यमों से संप्रेषित करता है,जैसे
कल्पना करें किसी व्यक्ति के सर पर पूरे बाल है। इसक अर्थ है कि वह गंजा नहीं है।
अब हम धीरे धीरे एक एक बाल उसके सर से अलग
करें तो इस प्रक्रिया में एक समय वह गंजा हो जाएगा। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान
यह बताना असंभव होगा कि किस विशिष्ट बिंदु पर वह व्यक्ति एक आम बालों वाले इंसान
से गंजा हो गया है। अर्थात अगर शब्द के स्तर पर किसी शब्द का अर्थ ग्रहण न कर पाने
पर दूसरी प्रतीक व्यवस्था में उसे उसी रूप में संप्रेषित कर पाना कठिन हो जाता है।
मोनेको
के अनुसार, ‘novel leaves
much room for imagination, but in film for example the novel’s word ‘rose’ can
bring to mind different kinds of roses, but in film spectators all see one
specific rose from a specific angle’. अर्थात यह शब्द से
प्रोक्ति तक भाषा के सभी स्तरों पर होता है। Dinda L. Gorlee के अनुसार, ‘informational loss’ must be highest intersemiotic translation in which
the semiosis shows maximum degeneracy (and hence maximum generacy) and it must
be lowest in intralingual translation, where the simiosis shows maximum
generacy (and hence minimum degeneracy). अर्थात
अंतरप्रतिकात्मक अनुवाद में सृजनात्मक की संभावना अन्य अनुवाद प्रकारों की अपेक्षा
अधिक होती है लेकिन साथ ही स्त्रोत भाषा में निहित सूचना के पूर्ण अंतरण की
संभावना कम होती है। संकेत विज्ञान और अनुवाद संबंध स्थापित करते हुये prnzio कहते है, “where there are signs, or, better, where there are semiotics processes
there is translation”. तथा अनुवाद में संकेत विज्ञान की
भूमिका को बताते हुये Torop कहते है ‘translation has an inherently intersemiotic character’.
1. सस्यूर
के भाषिक प्रतीक सिद्धांत जिसमें प्रतिकों की प्रकृति जैसे प्रतिमापरक (iconic) प्रतीक संकेतपरक (indexical) प्रतीक और सामान्य
प्रतीक (sign proper) के आधार पर प्रतीकांतरण की प्रकृति को
प्रतिकों के अर्थातरण की प्रकृति के आधार पर समझा जा सकता है। इस दृष्टि को ध्यान
में रखकर उपन्यास तथा उसके फिल्म रूपांतरण में प्रयुक्त प्रतिकों का विश्लेषण
अनुवाद की दृष्टि से किया जा सकता है जिसमें प्रतिकों की संरचना से लेकर अरर्थातरण
में उनकी भूमिका को विश्लेषित किया हा सकता है।
2. पियर्स
के प्रतीक सिद्धांत जिसमें पियर्स ने प्रतीक व्यवस्था को sign और interpretant की निरंतर शृंखला के रूप में
विश्लेषित किया है। उनका कहना है कि प्रतीक interpertant स्वयं
एक प्रतीक बनकर दूसरे interpreting के माध्यम से पहले अर्थ
से संबंधित दूसरे अर्थ को स्थापित करता है जिसे सामान्य रूप में समझने की दृष्टि
से हम लक्षणिक अर्थ भी कह सकते है। और फिर यह प्रक्रिया निरंतर अपने अर्थ का अधीक
विस्तार करते हुये चलती रहती है।
इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुये फिल्म रूपांतरण
में उपन्यास में प्रयुक्त प्रतिकों को प्रतीक और इंटरप्रिटंट की इस श्रुंखला में
कहा और किस तरह से स्थापित किया गया है इसका विश्लेषण किया जा सकता है।
3. फिल्म
रूपांतरण की प्रक्रिया में निहित प्रतीकांतरण की प्रक्रिया के लिए आवश्यक सामान्य
नियमों (अंतरप्रतिकात्मक अनुवाद व्याकरण) का पता लगाना तथा उन नियमों का विश्लेषण
करना जिससे भविष्य में फिल्म रूपांतरण के लिए प्रयुक्त किया जा सके।
भाषा
व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्त करने का साधन है। विचारों की अभिव्यक्ति के रूप
में यदि भाषा को हम देखें तो भाषा की परिभाषा मानव समाज तक ही सीमित न रहकर
मानवेतर प्राणी जीवन की सांकेतिक भाषा को भी अपने में समाहित करती है। एक प्राणी
होने के नाते मनुष्य भी मौखिक संप्रेषण के साथ साथ कायिक संकेत के माध्यम से
संप्रेषण स्थापित करता है। लेकिन अन्य प्राणियों के मुक़ाबले मानव अपनी कायिक
चेष्टा तथा भावभंगिमा के प्रति कम सचेत रहता है। 1950 में अलबर्ट महरेबियन द्वारा
कायिक भाषा पर किए गए एक शोध के अनुसार किसी भी मानव भाषिक संप्रेषण में 7 प्रतिशत
संदेश वहन शाब्दिक और 38 प्रतिशत संदेश का वहन ध्वनि के सुर तान से होता है जबकि
55 प्रतिशत संदेश का वहन अशाब्दिक या कायिक भाव भंगिमाओं के माध्यम से होता है।
इसलिए
इस तरह के सांकेतिक संप्रेषण के निर्वचन में संकेत प्रणाली तथा संकेतों के आपसी
संबंध का ज्ञान आवश्यक होता है।
सस्यूर
ने भाषिक संप्रेषण व्यवस्था को प्रतीक के माध्यम से रखा। उन्होने प्रतीक को ‘कथ्य’(signified) और
अभिव्यक्ति (signifier) के संबंधों के रूप में देखा। उन्होने
प्रतीक को कथ्य और अभिव्यक्ति के पक्षों से जुड़ी एक संश्लिष्ट और सार्थक इकाई माना
है। प्रसिद्ध विद्वान पियर्स के अनुसार “A sign is something that stands
to somebody for something else in some respect or capacity.” उदाहरण
के लिए हम कह सकते है कि शिवलिंग भगवान शिव का प्रतीक हैं क्योंकि
व्याख्याता(भक्तों) के लिए शिवलिंग वह वस्तु है जो अन्य वस्तु (भगवान शिव) के लिए
कुछ विशेष संदर्भों में प्रयुक्त होता है। प्रतीक की अवधारणा त्रिवर्गीय संकेतन
संबंधों पर आधारित है – ‘संकेतन वस्तु’, ‘संकेतार्थ’, और ‘संकेत प्रतीक’। संकेतक वस्तु बाह्य जगत में स्थित
इकाई है – यथा घोडा, किताब आदि। ‘संकेतार्थ’ व्याख्याता प्रयोगकर्ता के मन में स्थित उस इकाई की संकल्पना है। प्रतीक
इस संकेतार्थ को अभिव्यक्ति देनेवाली इकाई है जो संकेतार्थ वस्तु के स्थान पर कुछ
विशेष संदर्भों में प्रयुक्त होती है।
प्राणी
जीवन पर आधारित वृत्तचित्रों के निर्वचन में प्रकृति और प्राणियों के बीच आपसी
संबंधों में निहित संकेतों के आधार पर निर्वचन किया जाता है। इस प्रक्रिया में वृत्तचित्रों
में दिखाये गए प्राणियों के बीच घटित बायोसेमिओसिस तथा प्रकृति में हो रहे निरंतर
बदलाव के प्रति कायिक प्रतिक्रिया के आधार पर निर्वचक करता है। लेकिन निर्वचन करते
समय एक महत्वपूर्ण बात यह कि प्रतिकों की इस व्यवस्था को निर्वचन को अपने श्रोता
तक इस तरह से संप्रेषित करना होता है जिसे श्रोता उसे पूर्ण रूप से ग्रहण कर सके।
निर्वचन के इस पक्ष में श्रोता के सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का भी खयाल रखा
जाता है जिस तरह से साहित्यिक अनुवाद की प्रक्रिया में होता है। निर्वचन की इस
प्रक्रिया में प्रतिकों के बीच यादृचिक संबंधों के आधार पर श्रोता के लिए जानबूझकर
उस तरह का निर्वचन किया जाता है ताकि श्रोता की स्वीकार्यता बनी रहे। निर्वचन की
इस प्रक्रिया का आधार वह संकेत प्रणाली होती हैं जिसके माध्यम से सही अर्थ तक
पहुचने का प्रयास किया जाता है। लेकिन प्राणियों के बीच स्थापित इस संप्रेषन को
किसी मानव समाज तक निर्वचन करते समय निर्वचक को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता
है। इसका प्रमुख कारण प्राणियों की सांकेतिक भाषा का मानव भाषा में निर्वचन है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मानव भाषा संप्रेषन का साधन मात्र न होकर समाज और
संस्कृति का आईना होती है। इस दृष्टिकोण से प्राणियों की जीवन पद्धति तथा प्रकृति
के साथ उनकी प्रतिक्रीया का मानव समाज और संस्कृति के साथ निर्वचन के माध्यम से
मेल बैठा पाना कठिन होता है। इसलिए उचित एवं स्वीकारनीय निर्वचन एक चुनौती पूर्ण
कार्य है।
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2-
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