शोध आलेख

                    
अंतरभाषिक निर्वचन में ध्वनि चयन और अर्थपरिवर्तन की समस्या
(मराठी से हिंदी आशु-अनुवाद के विशेष संदर्भ में)

                                    लेखक - सुधीर जिंदे


सारांश :
      निर्वचन की संकल्पना अपनी प्रकृति में एक विस्तृत संकल्पना है। आशु-अनुवाद की प्रक्रिया निर्वचन की प्रक्रिया ही है। आशु-अनुवाद करते समय भाषिक निर्वचन की प्रक्रिया में शब्दों का लिप्यंतरण करते समय जिस भाषा में हम आशु-अनुवाद करते है उसकी ध्वनि व्यवस्था के अनुसार ध्वनि चयन किया जाता है। इस प्रकार के ध्वनि चयन में कभी कभी लक्ष्य भाषा के शब्दों में एक प्रतीक के रूप में अर्थपरिवर्तन होता है जो आशु-अनुवाद में शब्दों के उचित निर्वचन की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते है। अतः अंतरभाषिक आशु-अनुवाद में शब्दों के उचित निर्वचन के लिए उचित ध्वनि चयन की आवश्यकता है।

मुख्य शब्द : निर्वचन, आशु-अनुवाद, ध्वनि चयन, प्रतीकविज्ञान, अनुवाद
    

 परिकल्पना :
 1.  पाठों के अंतरभाषिक निर्वचन में स्रोत भाषा के सामाजिक शब्दों के लक्ष्य भाषा में लिप्यंतरण में ध्वनि प्रतीकों का चयन करते समय समस्या आती है। 
 2. समतुल्य ध्वनियों के अभाव में स्रोत भाषा के प्रतिकों का लिप्यंतरण लक्ष्य भाषा में करते समय प्रतीकों में अर्थ परिवर्तन की संभावना होती है।
3. संस्वनों (allophones) के चयन के अभाव में स्रोत भाषा के प्रतीकों और लक्ष्य भाषा के प्रतीकों की आर्थी संरचना में परिवर्तन होने की संभावना होती है।

उद्देश्य:
इस शोध का उद्देश्य स्रोत भाषा के लक्ष्य भाषा में लिप्यंतरित होने वाले शब्दों का ध्वनि चयन के दृष्टि से अध्ययन करना है। साथ ही लिप्यंतरण के ध्वनि चयन से होने वाली समस्याओं का अध्ययन करना इस शोध का उद्देश्य है।

प्रस्तावना :
मानव भाषा ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके माध्यम से मनुष्य समाज आपस में संप्रेषण स्थापित करता है। विश्वभर में मानव समूह भिन्न भिन्न भाषाओं का प्रयोग संप्रेषण के लिए करता है। किसी एक भाषिक समुदाय में भाषा प्रतीकों की एकरूपता के कारण संप्रेषण में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती। लेकिन भिन्न व्यक्तियों के बीच भाषा विशेष की प्रतीक व्यवस्था में भिन्नता होने कारण भाषा प्रतीक बोध एवं निर्वचन के स्तर पर समस्या आने के कारण संप्रेषण में बाधा आती है।
     दो भाषाओं के बीच संप्रेषण स्थापित करने के लिए अनुवाद का सहारा लिया जाता है। अनुवाद एक भाषा की पाठ सामग्री को दूसरी भाषा की पाठ सामग्री में बिना किसी अर्थ परिवर्तन के रूपांतरित करता है। रूपांतरण की आंतरिक प्रक्रिया को हम यदि जानने का प्रयास करें तो यह दो भाषाओं के प्रतीक व्यवस्था के बीच का अंतरण है। इसीलिए अनुवाद में दोनों भाषाओं की प्रतीक व्यवस्था को जानना आवश्यक होता है।
अनुवाद की इस प्रक्रिया को मौखिक रूप में प्रस्तुत करने की विधा को आशु-अनुवाद या निर्वचन कहते है। निर्वचन अपनी प्रकृति में एक व्यापक संकल्पना है। कृष्ण कुमार गोस्वामी के अनुसार, निर्वचन तात्पर्यों का स्पष्टीकरण है। लेकिन तात्पर्यों के स्पष्टीकरण के मूल में अनुवाद की प्रक्रिया अंतर्निहित होती है। भारत सरकार की विधि शब्दावली में इंटरप्रिटेशन इस अँग्रेज़ी शब्द के ‘process of ascertaining the meaning of a given text’ अर्थात किसी पाठ के अर्थ को जानने की प्रक्रिया दिया है। इस दृष्टि से इंटरप्रिटेशन की संकल्पना निर्वचन और अनुवाद दोनों को अपने भीतर समाहित करती है। आशु-अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें स्रोत भाषा में कही गई बात से प्राप्त कथ्य का अर्थ की दृष्टि लक्ष्य भाषा में अंतरण बोलकर किया जाता है। 
आशु अनुवाद की प्रक्रिया में भाषा प्रतीकों का उचित निर्वचन आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया में पहले स्रोत भाषा के प्रतीकों का निर्वचन किया जाता है और फिर लक्ष्य भाषा के प्रतिकों के समतुल्य प्रतीकों द्वारा स्रोत भाषा प्रतीकों से प्राप्त अर्थ का अंतरण किया जाता है।   
आशु अनुवाद में प्रतीकों के निर्वचन की समस्या प्रमुख होती है। अनुवाद की प्रक्रिया वास्तव में ध्वनि प्रतीकों के निर्वचन की प्रक्रिया ही है। इस प्रक्रिया में भाषिक अंतरण के पूर्व प्रतीकों का निर्वचन किया जाता है। सस्यूर ने भाषिक प्रतीक के संदर्भ में सैद्धांतिक दृष्टि से प्रतीक की संकल्पना को प्रतिपादित किया। सस्यूर के अनुसार, प्रतीक संकेतित वस्तु, संकेतार्थ और संकेतन (प्रतीक) की त्रिवर्गीय संरचना है। भाषिक प्रतीक के रूप में प्रतीक इन तीनों संकल्पनात्मक इकाइयों का मिला जुला रूप है। संकेतित वस्तु का संबंध बाह्य जगत की वास्तविक वस्तु से है, जैसे- वृक्ष, शेर आदि। संकेतार्थ से अभिप्राय प्रयोक्ता के मन में स्थित मानसिक संकल्पना अथवा बिंब से है। संकेतन प्रतीक इस संकेतार्थ को भाषिक ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्ति देनेवाली इकाई है जो संकेतित वस्तु के स्थान पर विशिष्ट संदर्भों में प्रयुक्त होती है।
इन तीनों इकाइयों के त्रिकोणीय संबंधों को देखें, तो संकेतित वस्तु, संकेतार्थ के बीच सीधा संबंध है, किंतु संकेतित वस्तु और संकेतन प्रतीक के बीच जो संबंध है उसका आधार यादृच्छिक है। इसी कारण से भाषा के बदलने पर एक ही संकेतित वस्तु के लिए भिन्न भाषाओं में भिन्न संकेतन (प्रतीक) पाए जाते है। इसी भाषिक प्रतीकों के माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया को पूर्ण किया जाता है।
भाषा संरचनाओं की संरचना है। भाषा की सबसे न्यूनतम इकाई स्वनिम है जो भाषा के दो शब्दों के बीच अर्थभेदकता लाने का कारण होती है। अर्थभेदकता की इस प्रक्रिया को न्यूनतम युग्म (minimal pair) के आधार पर समझ सकते है। न्यूनतम युग्म किसी शब्द में प्रयुक्त किसी एक ध्वनि के कारण अर्थ बदल जाता है, जैसे- पल – फल। इस युग्म में ध्वनि के ध्वनि प्रयुक्त होने से नए शब्द का निर्माण होने के साथ साथ अर्थ भी बदल जाता है।  
शब्द को हम एक भाषिक प्रतीक के रूप में यदि देखें तो किसी भाषिक प्रतीक में ध्वनि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शब्द में एक ध्वनि के परिवर्तन से भाषा के प्रतीक संरचना में बदलाव आता है। प्रतीक की संरचना से हमारा अर्थ है शब्द के अर्थ में परिवर्तन आने से वह प्रतीक किसी दूसरे संकल्पना को संकेतित करता है।
दो भाषाओं के बीच जो आशु-अनुवाद होता है उसमें शब्दों के ध्वनि चयन की समस्या एक बड़ी समस्या है। मराठी से हिंदी आशु अनुवाद के संदर्भ में यदि इस स्थिति को देखें तो हिंदी की अपेक्षा मराठी में ध्वनियों की संख्या अधिक है। उदाहरण के रूप मराठी '' ध्वनि के लिए हिंदी में '' ध्वनि का चयन किया जाता है। इस प्रकार के ध्वनि चयन के कारण '' ध्वनि से बने मराठी शब्दों को जब हिंदी में लिप्यंतरित किया जाता है तब '' के स्थान पर का प्रयोग किया जाता है। इस तरह के लिप्यंतरण से उस शब्द जो एक प्रतीक के रूप में भाषा में प्रयुक्त हो रहा है उसमें परिवर्तन हो जाता है और वह एक नए अर्थ का निर्वहन करने लगता है। जैसे- मराठी में बाळ ' शब्द का अर्थ छोटा बच्चा होता है जिसका किसी व्यक्ति के नाम के रूप में भी प्रयोग होता है जैसे- बाळ गंगाधर टिळक। बाळ शब्द एक प्रतीक के रूप में केवल एक ही अर्थ को संकेतित करता है।  इस शब्द का आशु-अनुवादक जब हिंदी में बाल के रूप अनुवाद करता है तब हिंदी भाषा में एक प्रतीक के रूप यह एक नए अर्थ की ओर संकेत करता है। इसी प्रकार से मराठी में टिळक इस शब्द का कोई विशेष अर्थ नहीं है। यह केवल व्यक्ति के एक उपनाम के रूप में प्रयुक्त होता है। लेकिन हिंदी में जब मराठी ध्वनि के स्थान पर और ध्वनि के स्थान पर ध्वनि का चयन किया जाता है तब प्रजनित तिलक शब्द एक  भाषिक प्रतीक के रूप में एक नए अर्थ को संकेतित करता है। हिंदी में ध्वनि का ना होना हिंदी भाषी को अपनी भाषा की ध्वनि को चयनित करने पर मजबूर करता है। लेकिन जो ध्वनियाँ हिंदी में उपलब्ध है उसके लिए उन्हीं ध्वनियों का चयन करना इस प्रकार के अर्थपरिवर्तन को रोकने के लिए आवश्यक है।
संदिग्धार्थकता के संदर्भ में इस तरह के ध्वनि चयन को देखें तो ऐसे ध्वनि चयन से आशु अनुवाद में कथ्य का निर्वचन करते समय संदिग्धार्थकता उत्पन्न हो सकती है। इस संदिग्धार्थकता का मुख्य कारण शब्द के आशु अनुवाद में इस प्रकार का ध्वनि चयन है जिसके कारण शब्द प्रतीकों के अर्थ में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन बाद में वाक्य में प्रयुक्त अन्य शब्दों के साथ अन्विति स्थापित कर नए अर्थ का निर्माण करते है। ध्वनि चयन की समस्या आशु-अनुवाद में लिप्यंतरण के दौरान ही आती है जिसमें लक्ष्य भाषा में स्रोत भाषा के भाषा प्रतीक का कोई पर्याय उपलब्ध नहीं होता। लिप्यंतरण में यह आवश्यक होता है कि उस लिप्यंतरण से लक्ष्य भाषा के आर्थी संरचना पर किसी प्रकार का प्रभाव न हो। इसलिए अंतरभाषिक निर्वचन में ध्वनि चयन से आशु-अनुवाद में आनेवाली अर्थपरिवर्तन की समस्या को दूर करने के लिए उचित ध्वनि चयन करना आशु-अनुवाद में आवश्यक है।



संदर्भसूची :
1.  Edited by Vanhove Martine , From polysemy to semantic change, John Benjamin Publishing Company
2.  Evans Vyvyan and Green Melanie, cognitive linguistics and introduction, Edinburgh university press limited.
3.  Odden David, introducing phonology, Cambridge university press.
4.  गोस्वामी कृष्ण कुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका राज कमल प्रकाशन प्रथम संस्करण 2008 



                लेखक
          सुधीर गौतमराव जिंदे
       पीएच.डी. अनुवाद प्रौद्योगिकी
        अनुवाद प्रौद्योगिकी विभाग

           म.गां.अं.हिं.वि. वर्धा 

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